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________________ ४७४] अनेकान्त [वैसाख, वीर-निर्वाण सं० २४६६. - सांख्य भी आत्माके अनादित्व और अनन्तत्वको पवित्र आदर्श और पूर्ण झानवीर्य-मानन्दके अवश्य स्वीकार करता है, किन्तु सांख्य पात्माकं आधार एक पुरुष प्रधानके होनेका विश्वास एकत्वको नहीं मानता। सांख्य और वेदान्तमें और मनुष्यकी प्रकृति-सिद्ध षात है, गहरी देवसत्तामें भी एक पार्थक्य है, सांख्यमतके अनुसार पुरुष विश्वास ही का नाम यदि धर्म है तो धर्मके प्रति या आत्माके साथ मिले हुये रूपमं क्रिया करने विश्वास या धामिक होना ही मनुष्यकी प्रकृतिगत वाली अचेतना प्रकृतिके नामकी एक विश्व- बान हुई। ऐमा भी कहा जा सकता है कि ज्ञान, रचना करनेवाली शक्ति विद्यमान रहती है। इस वीर्य, पवित्रता मादि सभी बातोंमें हमलोग क्षुद्र, प्रकारसे आत्माके अनादित्व अनन्तत्व और ससीम और बँधे हुए हैं, ऐसी दशामें जिन सब और असीमत्वको सांख्य मानता है और उम बातोंमें हम अधिकार पाना चाहते हैं वे सभी मतकं अनुसार आत्मा अनेक है । कपिलक मता बातं जिसमें उज्ज्वल या पूर्णरूपसे विद्यमान हों, नुमार पुरुषसे स्वतन्त्र और पृथक एक अचेतन ऐसे शुद्ध और पवित्र प्रभु या परमात्माके प्रति प्रकृति है, पुरुषसे पृथक होते हुए भी वह थोड़ो यदि हम स्वभावतः विश्वास रखते हैं तो इसमें देरके लिये पुरुषसे मिली हुई जान पड़ती है, इस आश्चर्य ही क्या हो सकता है। विजातीय प्रकृतिके अधिकारसे आत्माको पृथक । टीकाकारोंकी व्याख्याको यदि छोड़ भी दिया रूपमें अनुभव करनेका नाम ही मोक्ष है। जाय तो स्पष्टरूपमें समझमें आजायगा कि सांख्य जैन-दर्शन भी आत्माकं अनन्तत्व और दर्शनमें ऐसे शुद्ध और पूर्ण परमात्माका कोई अनादित्वको मानता है। कपिल-दर्शनकी तरह स्थान नहीं है, ऐसे शुद्ध परमात्माके होने में जैन दर्शन भी स्वभावत: म्वतन्त्र प्रात्माको बन्धन विश्वास करनेकी जो जीवोंको म्वाभाविक प्रवृत्ति में लाने वाले एक विजातीय पदार्थका होना है भारतीय-दर्श नोमें उसी आकांक्षाको पूरी करने स्वीकार करता है। सांख्य मतकं अनुसार जैन की पूरी पूरी चेष्टा की गई है। मतमें भी आत्माको अनेक कहा गया है, साँख्य और जैन इन दोनो ही दर्शनोंके मतानुसार विजा सांख्यकी तरह योगदर्शन भी आत्माकी तीय पदार्थके सम्बन्धसं आत्माको पृथक करनेका सत्ता और अनेकत्वको स्वीकार करता है, किन्तु योगदर्शन थोड़ा मा और भी आगे बढ़कर नाम ही मोक्ष है। जीवात्माओंका अधीश्वर अनन्त प्रादर्शरूपी एक अब यहां देखना है कि, प्रत्येक मनुष्य अपने परमात्माको बतलाया है। यही योगदर्शन और जैन सामने अपने आप ऊँचे ऊँचा और बड़े बड़ा दर्शनमें समता पाई जाती है। योगदर्शनकी तरह एक आदर्श रखना चाहता है। भक्तों का विश्वाग जैनमत भी परमात्मरूपो प्रभुके अस्तित्व में है एक ऐसा पुरुष ईश्वर, प्रभु या परमात्मा है, विश्वास करता है, वह अहंत पद वाच्य है। जो कि पूर्णताका अनन्त आधार है। महान अहतरूपी ईश्वर जगतका सृष्टिकर्ता नहीं है, वह
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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