SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७२ ] अनेकान्स ।वैसाख, वीरनिर्वाण सं० २४६६ - करना ही पड़ेगा। वैदिककर्मकाण्ड हिंसा-कलुषित जाँचकी दृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्टरूपमें होनेके कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यच रूपमें निर्वाणके प्रगट हो जायगा कि बौद्धमतको इम सुहावनी मार्गमें रोड़े अटकाने वाला है, इसीलिये वैदिक नीतिक ऊँचे महलकी नीव कितनी दुर्वल है। विधि-विधानोंका त्याग परमावश्यकीय हो जाता वेदके शासनको न माननेका उपदेश प्रहण योग्य है। यहाँ यह स्पष्ट हो रहा है, कि वेदके शासन- हो सकता है, अहिंसा या सन्यासका अनुष्ठान को न माननेके प्रसङ्गमें चार्वाक दर्शनसे मिलते- चित्तग्राही माना जा सकता है, कर्मवन्धनों के जुलते हुये, बौद्धदर्शनने चार्वाकोंकी इन्द्रिय तोड़नेका आदेश सारगर्भित स्वीकार किया जा परायणता प्रति दृढ़ताके साथ आक्रमण किया सकता है, किन्तु यदि बौद्ध दर्शनसे यह पूछा जाय है। वैदिक कर्मकाण्डको त्याग करते हुये कहीं कि हम क्या हैं, हमारा उद्देश्य और परमपद क्या लालसाके शिकार न बन जाय इसके लिये बड़ी है ? तो जो उत्तर कि बौद्ध-दर्शनकी ओर से सावधानीकी आवश्यकता है, इसी कठिन सयम हमें मिलेगा वह कदाचित बड़ा ही डरावना और सन्न्यासके द्वारा कोंकी जंजीरको तोड़ और रोंगटे खड़े कर देने वाला होगा। यदि यह डालना ही बौद्ध-दर्शनका मूल्यवान उपदेश है। उत्तर दिया जाता है, कि हम कुछ भी नहीं, ऐसी दशामें यह प्रश्न उठ खड़ा होता है तो क्या हम कर्मके बन्धनोंके कार ही जीव संसारमें केवल अन्धकार ही में भटक रहे हैं ? सारहीन दःख और क्लेशको भोगते हैं. जैन दर्शन भी इस महाशून्यता हो क्या जीवोंका चरमस्थान है ? बातको मुक्तकण्ठ से स्वीकार करता है । स्मरण और क्या उसी भांति पैदा करनेवाले महानिर्वाण रहे बौद्धमतके अनुसार जैन-दर्शन भी एक ओर और अनन्त कालकी महानिम्तब्धताको बुलाने जैसे वेदके विधानोंको नहीं मानता वेसे ही दुसरी लिये ही यह जीवन ठोर सन्यास व्रत ग्रहण करने ओर वह चार्वाककी इन्द्रियपगयणताकी भी हृदय हए जीवनके छोटे से छोटे(?) सुख तकको त्याग से घृणा ही किया करता है। अहिंसा और विरति. कर देगा? अनुष्ठानके योग्य हैं, इस बातको जैन और बौद्ध. दोनों ही समस्वरसे स्वीकार करते हैं, पर जैन मतकं यह जीवन प्रसार है, इसके अतिरिक्त जो अनुसार अहिंसा और विरतिका अनुष्ठान विशेष- कुछ भी है वह नहीं चाहिये, बौद्धदर्शनके इस रूपसे तीव्रभाव वाला अनुमान किया जाता है। निरात्मवादसे साधारण मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं . हो सकतं, यह तो निश्चितरूपमें मानना ही पड़ेगा। कुछ भी हो, जैन-दर्शन और बौद्ध दर्शन में . किसी समय बौद्धदर्शनका प्रचार बहुत बड़े रूपमें बहुत कुछ समता होते हुए भी इन दोनोंमें बड़ा हुआ था, इसमें कोई सन्दह नहीं, किन्तु वह अन्तर मौजूद हैं। बौद्ध-दर्शनकी नींव उतनी दृढ़ उसकी निरात्मवादिताके कारण नहीं प्रसिद्ध "मध्यनहीं जितनी कि जैन-दर्शनकी है। पथ" अर्थान बुद्धके बताये हुए मध्यमार्गको सहज
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy