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________________ स्थताके दोषके कारण जो कुछ इस टीका में रक्त रूपसे के साथ भोपाल सम्पादिता. मी बायोरचा गया हो वह सुब आगम पनी विद्यानोक्ने, दास श्रीबीमारितार्थवावा दिग्विारपरिशोधन किये जानेके योग्य है और जो निर्दोष है बाबा जीवियोगमाविवरेगपविता लिखित वही ग्रहण किया जाना चाहिये । यथा- . दीका श्रीमचिम्तिोपखालासंगतियों, , अत्यविमिराहरूसवा किंवा एकातिक, स्वादारवियप नीवाणसंपादित inti सर्वोदित स्त-प्रमाने प्रत्पत्यष्टापरे । : इस परसे श्रीयुत ० नादराम जी प्रेमीने अपनी वपुत्रार्थविवेचने कतिपयरेवारेमाच्या, . 'विद्वद्रस्नमाला' में या निष्कर्ष निकाला है किमहापचिन्तवपरा, टीकेतिक संभवः ॥४॥ ____ "वास्तवमें कषायमाभूतकी जो वीरसेत और जिनकल्पूर्वापरणोधनेन शनचन्माच्या टीकतं, सेनस्वामीकृत ६० हजार श्लोक-प्रमाण टीका है, उस मा टीकेवडगुणतां बुधजनरेषा दिनः पतिः । का नाम तो 'वीरसेनीया' है और इस बीरसेनीया टोकांबलिनिय तलमत्र रचितं, पामस्मदोषोडयाव.. सहित जो कषायप्राभृतके मूल सूत्र और चर्गिसूत्र, तत्सर्व परियोज्यमागमधनोबल पविस्तषं ॥४२॥ वार्तिक वगैरह अन्य प्राचार्योकी टीकाएँ ।, उन सबके इन पयोमें पाए हुए 'माया' (हम जैसोंकी) और मंग्रहको 'जयधवला'. टीका करते है । यो संग्रह 'क' 'हमारी) शब्दोंसे यह बात साफतौरसे उद्घोषित 'श्रीपाल' नामके किसी प्राचार्यने किया है, इसीलिये होती है कि यह प्रशस्ति जयधवला टीकाके उत्तर- जयधवलाको 'श्रीपालसम्पादिता' विशेषण दिया है।" भागकै रचयिता स्वयं श्रीजिनसेनाचार्यको बनाई हुई है प्रेमीजीका यह निष्कर्ष ठीक नहीं है, और उसके और इसके द्वारा उन्होंने श्रात्म-परिचय दिया है, जिससे निकाले जानेकी बजह यही मालूम होती है कि उस विज्ञ पाठक प्राचार्य महोदयकी शारीरिक, मानसिक समय आपके सामने पूरी प्रशस्ति नहीं थी । आपको और बुद्धयादि-विषयक स्थितिका बहुत कुछ अनुभव भागे पीछे के कुछ ही पद्य उपलब्ध हुए थे, जिनें आपने कर सकते हैं। अपनी पुस्तकमें उद्धृत किया है। जान पड़ता है आप प्रशस्तिमें टीकाका नाम कहीं 'वीरसेनीया' और उन्हीं पद्योंको उस समय पूरी प्रशस्ति समझ गये हैं और कहीं 'जयधवला' दिया है । साथ ही, अन्तिम पद्यसे उन्हींके आधारपर शायद आपको यह मी खयाल होगया पहले निम्न आशीर्वादात्मक पद्यमें उसे अन्य विशेषणों- है कि यह प्रशस्ति 'श्रीपाल'प्राचार्यकी बनाई है। परन्तु इस पंचसे पूर्वके तीन पथ इस प्रकार है- बात ऐसी नहीं है। यह प्रशस्ति श्रीपाल प्राचार्यकी बनाई प्रन्थच्छायेति यत्किचिदत्यत्तमिह पद्धती हुई नहीं है, जैसा कि ऊपरके अवतरणोंमें 'मान क्षन्तुमर्हय तत्पूज्या दोष अर्थी न पश्यति ॥३८॥ आदि शब्दोंसे प्रकट है । और न श्रीपालके उक्त संग्रह गाथासूत्राणि सूत्राणि पूर्णिसूत्रं तु वार्तिक । का नाम ही 'जयधवला' टीका है। बल्कि वीरसेन और टीका श्रीवीरसेनीयाशेषाः पद्धतिपंजिकाः ॥३९॥ जिनसेनकी इस ६ हजार श्लोक संख्यावाली ट्रीशाका वे सूत्रसूत्र तद्वतिषिवृती वृत्तिपढ़ती।... असली नाम ही 'जयधवला', ऐसा खुद जिनसेन कृत्स्नाकुत्स्नभूतव्यास्ये ते टीकापंजिके स्मृत॥४० ने प्रशस्तिके उक्त पधन.११११ में स्पष्ट रूपसे . . . . . .
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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