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[पौर, बीर-विषe
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प्रखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया था। अनिसुन्द- यः कृणोऽपि शीशमलभूत अपोगुषः । राकार और प्रतिचतुर न होने पर भी सरस्वती बाप नकृशत्वं हि मर गुरेज : pe R. पर मुग्ध थी और उसने अनन्य-शरण होकर उस समय यो नाग्रहीत्कापलिकामावचितपदंबसा।
आपका ही प्राभय लिया था। साथ ही, आसन्न भव्य तयाध्यध्यात्म विधायक पारमशिमियत् ॥१३॥ होने की वजहसे, मुक्तिलक्ष्मीने स्वयंवाकी तरह उत्सुक शामाराधनका रस गतः कालो निरन्तरं । होकर आपके काठमें श्रुतमाला डाली थी । इस अलं- ___ ततो ज्ञानमयं पिर बमाहुस्सायदर्शिनः ॥३॥ कृत भावको प्रशस्तिके नीचे लिखे पत्रों में प्रकट किया जिनसेनने जयधवला टीकाके उत्तर-भागको अपने गया है
गुरु (वीरसेन ) की आज्ञासे लिखा था। गुरुने उत्तरपस्मिन्नासम्नमव्यत्वान्मुकिनामी समुत्युका।। भागका बहुत कुछ वक्तव्य प्रकाशित किया था। उसे स्वयंवरितकामेव भौति भावामपपुवत् ॥ २८ ॥ देखकर ही अल्प वक्तव्यरूप यह उत्तरार्ध श्रापने पूर्ण पेनाधरित बास्या मानवमासंदितम् । किया है, जो प्रायः प्राकृत भाषामें है और कहीं कहीं स्वपंडरविधानेन चित्रमा सरस्वती ॥२॥ संस्कृत मिश्र भाषाको लिये हुए हैं; ऐसा आप स्वयं पो गाविसुन्धराकारो न चाविचतो मुनिः। प्रशस्तिके निम्न 'पद्यों द्वारा सूचित करते हैं-- वाप्यनन्यारवाज्यं सरस्वत्युपा चरव ॥३०॥ तेनेदमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् ।
जिनसेन स्वभावसे ही बुद्धिमान, शान्त और विनयी लिखितं विशदैरेभिरपरैः पुरुष शासनम् ॥३५॥ थे, और इन (बुद्धि, शांति, विनय ) गुणोंके द्वारा गुरुणाऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते ।
आपने अनेक प्राचार्योंका पाराधन किया था-अर्थात् तन्निरीच्याल्पवातम्यः परचार्धस्तेन परितः ॥१५॥ इन गुणोंके कारण कितने ही प्राचार्य उस समय श्राप प्रायः प्राकृतभारत्या कचिसंस्कृतमिया । पर प्रसन्न थे। आप शरीरसे यद्यपि पतले-दुबले थे, तो मणिभवानन्यायेन प्रोकोऽयं ग्रंथविस्तरः ॥३०॥ भी तपोगुणके.अनुष्ठानमें कमी नहीं करते थे। शरीरसे कुछ आगे चलकर आपने यह प्रकट करते हुए कश होने पर भी आप गुणोंमें कृश नहीं थे। आपने कि 'सर्वशोदित इस सत्य प्रवचनमें, जोकि प्रस्पष्ट तथा कपिल सिद्धान्तोंको-साख्यतत्त्वोंको-ग्रहण नहीं किया मृष्ट (पवित्र ) अक्षरोंको लिये हुए हैं, अत्युक्त अनुक्तऔर न उनका भले प्रकार चिंतन ही किया,तो भी श्राप दुरुक्तादिक-जैसी कोई बात नहीं है, अपनी टीकाके अध्यात्म-विद्या-समुद्रके उत्कृष्ट पारको पहुंच गये थे। सम्बन्धमें यह भी बतलाया है कि थोड़े ही अक्षरों द्वारा आपका समय निरन्तर ज्ञानाराधनमें ही व्यतीत हुआ सूत्रार्थका विवेचन करनेमें हम जैसोंकी टीका उक्त, करता था, इसीसे तत्त्वदर्शीजन आपको ज्ञानमय पिण्ड अनुक्त और दुरुक्तका चिन्तन करने वाली (वार्तिकरूप) कहते थे। इन सब बातोंके द्योतक पद्य, प्रशस्ति में, इस टीका नहीं हो सकती। इसलिये पूर्वापर-शोधनके साथ प्रकार है
हम जैसोंका जो शनैः शनैः (शनकैस् ) टीकन है, जीसमो विवपरति पख नैसनिमः गुणः। उसीको बुधजन टीकारूपसे ग्रहण करें, यही हमारी वारापति स्म गुराराध्यते
पद्धति है। साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि बम