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________________ भने शामिपूर्ण स् । और साथ ही आपको पंवला भारतीको संष्टापसे प्रासादादीपमहोत्सवे । नमस्कार भी किया है वीरसेनके विच होनेसे वे मी अमोषरावे-आपरामप-मुखोला। पंचस्तूपान्वयी प्राचार्य है और इसलिये इनकी भी विदिता मच (१) मायापालिका गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्यसे प्रारम्भ होती है-एलाचापहिरेवसामावि न्यानो परिमावसः। यसे नहीं। विद्वलमाला' में उसका एलाचार्यसे खोपानुष्टमेवात्र निविद्यान्यनुपूर्वशः u प्रारम्भ होना जो लिखा है वह ठीक नहीं है। विभक्तिः प्रथमस्कंधो द्वितीया संक्रमोदयौ । जयधवलाकी उक्त प्रशस्तिमें, वीरसेनका परिचय उपयोगरव शेवास्तु तृतीयः स्कन्ध हन्यते ॥१०॥ देनेके बाद, जिनसेनको वीरसेनका शिष्य बतलाते हुए, एकाबपहिसमधिकसमशताब्वेषु शकनरेन्दस्य। जो परिचयका प्रथम पत्र दिया है वह इस प्रकार हैसमतीतीषु समासा अवयवक्षा प्रामृतम्याक्या ॥ तस्य शिष्यो भवेत्रीमान् विनसेनः समिधी। यह बात ऊपर बतलाई जाचुकी है कि धवला पाविद्यावपि पलायो विदा शामरावाक्या ॥२॥ टीका शकसंवत ७३८में बनकर समाप्त हुई थी, उसके इससे मालम होता है कि श्रीजिनसेन वीरसेनाचा बाद हो यदि जयधवला टीका प्रारम्भ करदी गई थी, यके तीन बदि शिष्य थे। साथ ही, यह भी मालूम जिसका उसके अनन्तर प्रारम्भ होना बहुत कुछ स्वा- होता है कि आप भाविद्धकर्ण थे अर्थात् प्रापके दोनो भाविक जान पड़ता है, तो यह कहना होगा कि जय- कान बिंधे हुए थे, फिर भी आपके कान पुनः शानधवलाके निर्माण में प्रायः २१ वर्षका समय लगा है। शलाका से विद्ध किये गये थे, जिसका भाव यही चूँकि इसका एक तिहाई भाग ही वीरसेनाचार्य लिख जान पड़ता है कि मुनि-दीक्षाके बाद अथवा पहले पाये थे, इसलिये वे धवलाके निर्माण के बाद प्रायः श्रापको गुरुका खास उपदेश मिला था और उससे ७ वर्ष तक जीवित रहे हैं, और इससे उनका अस्तित्व आपको बहुत कुछ प्रबोधकी प्राति हुई थी। काल प्रायः शक संवत ७४५ तक जान पड़ता है। आप बाल-ब्रह्मचारी थे-बाल्यावस्थासे ही आपने इस तरह यह वीरसेनाचार्यका धवल-जयधवलके आधार पर संक्षिप्त परिचय है। अब जिनसेनाचार्यके * पाविपुरावके थे पर इस प्रकार हैपरिचयको भी लीजिये। श्रीबीरसेन इत्यात-भट्टारकपृथुप्रथः । श्री जिनसेनाचार्य स नः पुनातु पुतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥१५॥ जयधवलके उत्तरार्धके निर्माता ये जिनसेनाचार्य लोकवित्वं कवित्वं च स्थित भद्वारके इयं । वे ही मिनसेनाचार्य है जो प्रसिद्ध श्रादिपुराण ग्रंथके वाग्मिता वाग्मिनो यस्थ वाचा वाचस्पवेरपि ॥१६॥ रचयिता हैं और प्रायः भगवजिनसेनके नामसे उल्ले- सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । खित किये जाते है । श्रादिपुराणमें भी इन्होंने "मी- मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकोशयम् ॥ ५० ॥ वीरसेन इत्याच महारकपुषुमणा" इत्यादि वाक्योंके द्वारा धवला भारती तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । भीवीरसेनाचार्यका अपने गुरुरूपसे स्मरण किया है पवनीकृवनिःशेषभुवना तां नमाम्यहम् ॥5॥
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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