SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- पुस्तकानां शिक्षा शामिला। पविच क्या प्रार्थनादी के लिय और 'उनौने अपने गावितापिता ते सर्व पुस्तकविया ॥२॥ परतपोदसिमिधामोवानि दोषयन् । कुल, गण तथा सन्तान (विष्यसमूह) को अपने विमुनीमेन पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥२॥ गुणोखे उज्वल किया था। अशिमानसेनस्य बासिबोयाबंदिनी। ___ यह परिचय कुछ अतिशयालंकारते युक्त होनेपर संग संतान सरवनिया ॥२॥ भी बहुत कुछ तथ्यपूर्ण जान पड़ता है और इसका इन पद्योंमें बतलाया है कि-'श्री वीरसेनाचार्य कितना ही अनुभव वीरसेनाचार्यको धवला और जयमहारक पदकी महास्यातिको प्राप्त थे और साक्षात् धवला ऐसी दोनों टीकाओंको देखनेसे हो सकता है। केवलीकी तरह अधिकांश विद्याओंके पारदृष्टा थे। उनकी इस परिचयमें भी वीरसेनको पंचस्तूपान्वयी चन्द्रसेनके अशेष विषयोंसे परिपूर्ण तथा प्राणिसम्पत्तिको-प्राणियों मशिष्य तथा आर्यनन्दीके शिष्य सूचित किया है। साथ में उत्कर्षको प्राप्त मानवसंततिको अथवा प्राणिसमूहको- ही, एलाचार्यका गुरुरूपसे कोई उल्लेख ही नहीं किया, संतुष्ट करनेवाली भारती(वाणी)सिद्धान्तागमके षट्खण्डों जिसका यह स्पष्ट अर्थ जान पड़ता है कि वीरसेनाचार्यमें उसी प्रकारसे निर्वाध प्रवर्तती थी जिस प्रकार कि भरत की गुरुपरम्परा उक्त चन्द्रसेनाचार्यसे ही प्रारंभ होती है, चक्रवर्तीकी आशामरतक्षेत्रके छोखण्डोंमें अखण्डितरूप एलाचार्यसे नहीं-एलाचार्यसे उन्हें प्रायः षट्खण्डासं वर्तती थी-अर्थात् जिस तरह भरत चक्रीकी श्राण गमविषयक ज्ञानकी ही प्राप्ति हुई थी, जयधवलके श्राछहों खण्डोंमें प्रमाण मानी जाती थी उसी तरह वीरसेना- धारभूत कषायप्राभृतके जानकी प्राप्ति नहीं। चार्यकी वाणीभी षटसण्डागमके विषयमें प्रमाण मानी वीरसेनाचार्य जयधवलाको पूरी नहीं कर सके, वे जाती थी। उनकी सर्वपदामि प्रवेश करनेवाली स्वाभाविक उसका पूवार्ध ही-जो कि प्रायः २० हजार श्लोक बुद्धिको देखकरबुद्धिमान लोग सर्वशके विषयमें शंकारहति परिमाण है-लिख पाये थे कि उनका स्वर्गवास होगया, होगये थे। वे प्रकर्षरूपसे स्कुरायमान शानकी किरणोंके और इसलिये उत्तरार्धको-जो कि ४० हजार श्लोकप्रसारको लिये हुए थे और इसलिये विद्वान् जन उन्हें परिमाण है--उनके शिष्य वीरसेनने लिखकर समाप्त भुतकेवली तथा प्रशाश्रमणोंमें उत्तम कहते थे। उनकी किया है। समाप्तिका समय शक संवत् ७५६ फाल्गुन बुद्धि प्रसिद्ध और सिद्ध ऐसे सिद्धान्त-समुद्रके जलसे शुक्ला दशमीके पूर्वान्हका है,जबकि नन्दीश्वर महोत्सवके धुलकर शुद्ध हुई थी, और इसलिये वे तीन बुद्धिके अवसर पर अर्थात् अष्टान्हिका पर्वमें-महान् पूजाधारक प्रत्येक बुद्धोंके साथ स्पर्धा करते थे। उन्होंने विधान प्रवर्त रहा था, और गुर्जरराजा अमोघवर्षका प्राचीन पुस्तकोंके गौरवको बढ़ाया था और वे अपने राज्य था । उन्हींके राज्यके वाटग्राम नगरमें यह सूत्रार्थपूर्वके सभी पुस्तकशिष्यों-पुस्तकपाठियों अथवा पुस्तकों- दर्शिनी 'जयधवला' टाका, जिसे 'वीरसेनीया' नाम भी पारा ज्ञान प्राप्त करनेवालोंमें बढ़े चढ़े थे। वे मुनिराज- दिया गया है, उक्त समय पर समाप्त की गई है, जैसा रूपी सूर्य अपने तपकी देदीप्यमान किरसोंसे मंन्यज़मरूपी कि प्रथस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट हैकमलोंको विकसित करते हुए पंचस्तूपान्ववरूपी प्रकाश- इति भीवीरसेनीया टीका सूत्रायशिनी। में सविशेष रूपसे उद्योतको माप्त हुए थे। वे चन्द्रसेनके पाखामपुरे भीमगुणसवानुपाखिते ॥१॥
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy