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संस्कृत भाषाको
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जिनसेन है और इसमें टीका नाम, मल-मंगला मगरमिक तथा प्रन्यकी समासिक समयादिकी सूचना रेसमा पनि ति वीरसेन और मिनसेन दौना प्राधानका कारसानिया स्थिति सुमि मिमीब) चय मी दिया हुआ है। श्रीवोरसेनाचाक परिचय
विषयक मुख्य पचमाराके सिदान्त-भवनको प्रतिके बत्तिगासे एका टीका ममाषिता (पा) खा अनुसार इस प्रकार है:गोरापरिद परिबरामविहि मुंबते। बीवीरसेन इत्यास-महार-मुगुमा । सिलंगगंभमस्तिष गुरुपसाएर विगता सा'nu
पारवाधिविधाना सापादिवस at anu इस प्रशस्तिके बाद एक संस्कृतका प्रशस्ति-पद्य
प्रीवित-प्राविसंपनियतापगोधरा । और दिया है, जो संभवतः वीरसेनाचार्य के किसी शिष्य
भारती भारतीवाशा पट्सले पस्य नामावत् ॥२०॥ की-प्रायः जिनसेनकी–कृति जान पड़ता है, और वह
पस्य नैसर्गिकी प्रज्ञा पहा सर्वागामिनीं । इस प्रकार है:
जाता सर्वसमावे निरारेका मनीषिणः ॥२॥
प्राहुः अस्योध-दीधिति-प्रसरोदयं । शब्दब्रह्मेति शादैर्गयधरमुनिरित्येव राधान्तविमिः
श्रुतकेवखिनं प्राशाः प्रशाश्रमवसत्तमं ॥२२॥ सामात्सर्वज्ञ एवेत्यवहितमतिमिः सूक्ष्म वस्तुप्रणीतो (वीणैः) यो प्यो विश्वविधानिधिरिति जगति प्राप्त भट्टारकास्यः
प्रसिद्ध सिद] सिद्धांत-वाधिवाधीत एरधीः ।
साई प्रत्येक स्पर्धने धीबनुदिभिः ॥२१॥ स श्रीमान्बीरसेनो अयति परमतम्यांनभित्रकारः॥
___ पहनी गाथा टीका नामादि-विषयक है और इसमें बतलाया है कि-'जिन्हें शान्दिकोंने 'शब्द
वह निम्न प्रकार है। शेष गाथाएँ श्रुतदेवताके परणाब्रह्मा' के रूप में, सिद्धान्तशास्त्रियोने 'गणधरमुनि' के रूपमें, सावधानमतियोंने 'साक्षात् सर्वज्ञ' के रूपमें
दिसे सम्बन्ध रखती हैऔर सूक्ष्मवस्तु विज्ञोंने 'विश्वविद्यानिधि के रूपमें एत्य समापद धवलियतिपयमवया पसिरमाहप्पा । देखा-अनुभव किया-और जो जगत में 'भधारक पासुत्तासमिमा जमवला सवियपा टीका ॥१॥ नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए, वे परमताधिकारको भेदने इस पचसे पहले वीरसेन-विषयक दो पच और वाले शास्त्रकार-इस ग्रन्थ के रचयिता-श्रीमान् वीर. १. जो निम्न प्रकार हैसेनाचार्य जयवन्त है-विदहदयोंने सब प्रकारस भूपावावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनं । अपना सिका जमाए हुए है।
भयावावीरमेक्स्य बीरसेवस सास (1) mn ___ जयधवलके अन्समें भी एक प्रशस्ति लगी हुई है। भासीदासं वामनभव्यसत्वकमाती। जो संस्कृत तथा प्राकृत भाषाके ४४ पद्योंमें -अर्थात मुली मीसो पा शकस पुका