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________________ [पौष, बीर-विवाद सं. e अषित किया। वीरसेनस्वामीने कि इस टीकाको धवला' जाधवलासे मिलता-जुलता ही नाम जयधवला प्रारम्भ किया था और इसका एकतिहाई भाग (२० है, जो उनकी दूसरी टीकाके लिये बहुत कुछ समुचित हजार श्लोक) लिला भी था। साथ ही, टीकाका शेष प्रतीत होता है। और इस दूसरी टीकाके 'अपइ धवलंगभाग, आपके देहावसान के पश्चात्, आपके ही बकाशित तेथे इत्यादि मंगलाचरणसे भी इस नामकी कुछ ध्वनि वक्तव्यके अनुसार पूरा किया गया है, इसलिये गुरु- निकलती हैं। अतः इन सब बातोंसे टीकाका असली भक्ति से प्रेरित होकर भीजिनसेनस्वामीने इस समूची नाम 'वीरसेनीया' न होकर 'जयधवला' ठीक जान टीकाको आपके ही नामसे नामांकित किया है और पड़ता है। 'वीरसेनीया' एक विशेषण है जो पीछे से 'वीरसेनीया' भी इसका एक विशेषण दिया है। इन्द्र- जिनसेनके द्वारा इस टीकाको दिया गया है। नन्दिकृत 'श्रुतावतार' और विबुध श्रीधरकृत 'गद्य- अब रही 'श्रीपाल-संपादिता' विशेषणकी बात, भुतावतार के उल्लेखोंसे भी इसी बातका समर्थन होता है उससे प्रेमीजीके उक्त निष्कर्षको कोई सहायता नहीं कि बीरसेन और जिनसेनकी बनाई हुई ६० हजार श्लोक मिलती । श्रीपाल नामके एक बहुत बड़े यशस्वी विद्वान संख्यावाली टीकाका नाम ही 'जयधवला' टीका है। जिनसेनके समकालीन हो गये हैं। प्रशस्तिके अन्तिम यथा पद्यमें आपके यशकी ( सत्कीर्तिकी) उपमा भी दी गई "अपवयं पठिसामग्रन्थोऽभवटीका। है। वह पद्य इस प्रकार है -इन्द्रनन्दिश्रुतावतार सर्वज्ञप्रतिपादितार्थगणभृत्सूत्रानुटीकामिमां, "अमुना प्रकारेण पष्ठिसहसमिता जयधवला- येऽभ्यस्यन्ति बहुश्रुताः श्रुतगुरुं संपूज्य वीरं प्रभु । नामाक्षिता टीका भविष्यति । ते नित्योऽवलपनसेनपरमाः श्रीदेवसेनार्चिताः, -श्रीधर-गद्यश्रुतावतार० भासन्ते रविचन्द्रमासिसुतपाः श्रीपालसत्कीर्तयः ॥४॥ यदि प्रेमीजी द्वारा सूचित उक्त संग्रहका नाम ही श्रादिपुराणमें भी आपके निर्मल गुणों का कीर्तन 'जयधवला' होता तो उसकी श्लोकसंख्या ६० हजार किया गया है और आपको भट्टाकलंक तथा पात्रकेसरीन होकर कई लाख होनी चाहिये थी। परन्तु ऐसा नहीं जैसे विद्वानोंकी कोटि में रखकर यह बतलाया गया है है। ऊपर के अवतरणों एवं प्रशस्तिके पद्य नं०६ में कि आपके निर्मल गुण हारको तरहसे विद्वानों के हृदयमें साफ तौरसे ३० हजार श्लोक-संख्याका ही जयधवलाके प्रारूढ़ रहते हैं । यथासाथ उल्लेख है-साक्षात् देखनेपर भी यह इतने ही भहाकलंक-भोपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः । प्रमाणकी जान पड़ती है । और भी अनेक ग्रन्थोंमें इम विदुषां हृदयाला हारायन्तेऽतिनिर्मवाः ॥ टीकाका नाम जयधवला ही सूचित किया है । इसके इससे स्पष्ट है कि श्रीपाल एक ऐसे प्रभावशाली सिवाय, वीरसेन स्वामीकी दूसरी सिद्धान्त-टीकाका नाम श्राचार्य थे जिनका सिक्का अच्छे-अच्छे विद्वान् लोग .."ये कृत्वा धवला जयादिधवला सिद्धान्तटीकं सती मानते थे। जिनसेनाचार्य भी आपके प्रभावसे प्रभावित "वन्दध्वं वरवीरसेन-जिनसेनाचार्य पर्यान्बुधान् थे। उन्होंने अपनी इस टीकाको लिखकर आप ही से -पवासारटीकार्या, माधवचनः उसका सम्पादन (संशोधनादिकार्य) कराना उचित
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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