________________
जैसे ही नहींमुनेःस्थानचे हटा ही नहीं !!
दोनों बैठे ! दरिद्रता द्वारा सुलभ रुखे-सूखे किन्तु प्रेम-पूर्ण भोजन के लिये ! दोनों खा रहे थे-मौन ! विचार धाराएँ शतलजकी भाँति वेगबती हो बह रहीं थीं । विपरीत, एक-दूसरीसे ! इलवाहक सोच रहा था— आजका दिन धन्य है ! एक महा-पुरुष के साथ भोजन करनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है !'
और उधर—‘मैं अपराधी हूँ ! उसके घनको मैंने देख लिया, भूल की न ?... अभी उसे पता नहीं है! पता होने पर! बस, खा-पीकर चल देना हो ठीक है- अब ! फिर देखा जाएगाकलाका शिक्षण...!
इलवाहक चाहता - जिन्दगी-भर इसी तरह खाते रहें' ! बियोग न आए .' और धन्यकुमार सोचता – 'कब खाना खत्म हो, कब छुट्टी मिले !' भोजन हो चुकने पर प्रसन्नता भरे स्वर में reates बोला- 'आपने मेरी प्रार्थनाका श्रादर किया ! अब मैं भी कला सिखानेके लिए उद्यत हूँ ! ... आइए !"
दिन
था ! नहीं घूमकर बोला- 'जा रहा हूँ !' -मीर हाथ जोड़ लिए !
हलवाहकका जैसे आशा स्वप्न भागा जा रहा हो ! हाथ-जोड़े, जब तक धन्यकुमार दृष्टिसे कोमल न होगया, खड़ा रहा।
फिर...
१
निराशा, धन्यमनस्क लिए भागया अपने काम
पर !
*********
टिख ! टिख !!.....
बैल बदे कि - 'ठक् !' अटक गया—कुछ ! मजबूत हाथोंने मिट्टी हटाकर देखा – धनसे भरा हुआ--कढ़ाह !
दरिद्र-श्रमीकी आँखें चौंधियाने लगी- इतना धन ?...
सोचने लगा--'यह उसी महा-भाग्यके चमत्कारका द्रव्य है ! मेरा क्या है- इसमें ?... अगर मेरा होता तो....पूर्वज जोतते आए, मैंने जब से होश-मम्हाला जोता--कभी एक पैसा नहीं निकला ! आज इतना- धन !...न, मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं, उसी का है ! उसे ही दे देना मेरा कर्तव्य !,
लिए !
२१३
...और वह भागा, बेतहासा उसे लौटानेके
धन्यकुमार पर घोर संकट ! क्या करे अब ? बराकर बोला- ' यह है, मुझे अब जल्दी है । पहुँचना भी तो है ! फिर कभी सीख लूंगा !"
और चलने लगा अपने पथ पर ! हलबाहक गृहस्यसे अनभिज्ञ ! निर्निमेष देखता हुआ, बोला'ऐसा क्यों ?' धन्यकुमार दश-बारह क़दम आगे जा चुका 'कहीं 1 तो नहीं रहा !'
服
883
मन, आशंका सलमा हुआ था, न १ भय भी था अपराधका ! यदि पंख होते तो वह कहाँ-काकहाँ पहुँचा होता ! तो भी उसने गतमें सामर्थ्यानुसार वृद्धि की थी ! मुड़-मुड़ कर देखता जाता-