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गौच, बीर-विधि सं०४६ सुख! बात कर सकनेका अवसर उसे स्वतः ही कुछ देर ! इच्छा पर काबू किए हुए ! किन्तु मिला अविलम्ब, यथा-साध्य स्वरको मृदु बनाते विचार आया-व्यर्थ पैठनसे क्या लामाबहुए बोला-'हाँ, हाँ! अवश्य...! लेकिन एक तक हल चलानेका अभ्यास किया जाए तो कैसा?
"लाली पड़ा है-यह !' . दरिद्रताने बात पूरी करनेका साहस छौन . हृदयकी उत्कएठाने प्रस्तावका समर्थन किया ! लिया! दय विवश ! धन्यकुमार क्षण-मर चुप, वह आगे बढ़ा ! हल चलाने लगा !... देखता-भर रहा उसकी ओर ! शर्त' सुनाना उसके टिख ! टिख !टिख !!! लिए अब अनिवार्य था-कलाकार जो बनना-भा! हलवाहकका सर्वांग अनुसरण था ! निरापबोला--'क्या ?
राध पृथ्वीका वक्षस्थल विदीर्ण होने लगा ! हलमें हलवाहकको प्रोत्साहन मिला ! बचेखुचे लगा हुआ नुकीला-लोह करने लगा अपनी निर्द
को बटोर कर कहने लगा- यही कि आप यताका सफल-प्रदर्शन ! मेरा मातिथ्य स्वीकार करें? मैं भी उप-वर्ण-श्रा- बैल, नवीन-हलवाहकके संरक्षकत्वमें 'चार
छह कदम ही आगे बढ़े थे, कि.....! और देखने लगा-संशयात्मक दृष्टि से धन्य- ठक्"! कुमारके भव्य-मुखकी तरफ ! जैसे अपनी आन्त- रुक गया हल!"क्या हुमा ?.."धन्यकुमार रिक्साकी पूर्ति खोज रहा हो !...
'देखने लगा-हलके रुकनेका आकस्मिक-सबब! एक छोटी-सी नीरवता!
देखा-'पृथ्वीके गर्भ में एक कढाह-दानवकी पाहा कि पातिथ्यको अस्वीकार करदें ! ले- सरह--हल के मार्गमें बाधक बना पड़ा हुआ है ! 'किन कला-शिक्षणका लोभ ?-कहना पड़ा-- खोद कर निकाल बाहर करनेके विचारसे यह *स्वीकार है मित्र!'
मिट्टी हटाने लगा-नवनीत जैसे कोमल हाथोंसे !
श्री
'भाप विराजिए-जरा! मैं पात्र बनानेके आश्चर्य-सीमा लाँघने लगा! कढ़ाहमें अपार लिए पाझव एकत्रित कर लाऊँ--तबतक !! हलवा- धन-राशि मरी हुई थी !:"सोचने लगा 'भोला-सा 'इंकने बैठने योग्य स्थानकी ओर संकेत करते हुए, धन्यकुमार-..'अनधिकार चेष्टा थी मेरी ! विना म-भक्ति निवेदन किया!
उसकी आज्ञाके हल छूना ही नहीं चाहिए था___ 'अच्छा !' -धन्यकुमार बैठ गया ! भोजन मुझे ! छिपाकर रखा हुआ-धन मैंने व्यक्त कर भार मालुम हो रहा था--और विलम्ब असह- दिया ! अवश्य, असन्तुष्ट होगा वह !... नीय ! पर विवशता सामने पड़ी थी ! लेकिन पश्चातापसे मुलसे हुए मनने तिलमिला दिवा दृष्टि बी हल-बैल पर !...
उसे ! जल्दी-जल्दी मिट्टी डालकर छिपाने लगा ! • हलवाहक चला गया ! धन्यकुमार बैठा रहा, और जैसेका तैसा करा -बैठा अपने स्थान पर !