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________________ १२० बहुत दूर निकल गया !--मया-कुल-चित धन्यकुमार ! विश्वास जम गया कि 'अब आएगा नहीं !" . लेकिन 'विश्वास' का धरातल बालुकी दीवार की तरह अस्थायी निकला। कानोंने सुना, आँखों ने देखा-- वह पुकारता हुआ, भागता हुआ आ रहा है! सच, चला रहा है इसी ओर ! धन्यकुमारका होश ! सारा शरीर बेतकी भाँति काँप उठा ! रुक गया जहाँ-का-तहाँ ! यह आया ! [पौष, बीर-निर्वाच सं० २०११ तो भाज ही न निकलकर पूर्वजोंके सामने नि. लता, या मैं इतने दिनोंसे इसे जोत रहा हूँ ! ...पहिले भी निकल सकता ! मगर आप विश्वास कीजिए कभी एक कौड़ी नहीं निकली ! धन आपका है, आप उसके मालिक ! मेरे लिए मिट्टी ! चलिये !" . 'मैंने कहा न, धन मेरा नहीं है! मैं उसके विषयमें कुछ नहीं जानता !" विकास 'न जानिए ! पर उसे हटा लीजिए ! मेरे ऊपर से व्यर्थका भार उठे ।' 'लेकिन वह मेरा हो तब न ?” 'धन आपका, और फिर आपका ! आप कैसी धन्यकुमारने समझा जैसे उसका अन्त-समय है, काल सामने खड़ा है ! पर इसके मुँह पर रौद्रता क्यों नहीं ? वही बातें कर रहे हैं !" दीन-भाव, वही श्रद्धा-दृष्टि !! 'आप लौट चलिए ! आपका धन यहाँ रह गया है, उसे ले आइए।' 'मेरा घन...?' 'हाँ ! आपका ही...!' 'मेरे पास तो शरीर पर इन बस्त्रोंके अतिरिक्त और कुछ भी न था !' 'ठीक है! लेकिन वह कढ़ाह - जो खेतकी मिट्टीके नीचे दबा निकला है-- आपके भाग्य चमकारका ही प्रसाद है !" 'भाई ! धन तुम्हारा है, मेरा नहीं !' मेरा ? जिसने दरिद्रताको गोदमें बैठकर जिन्दगी बिताई ! इतनी उम्र हुई - इतना धन स्वप्नमें भी नहीं देखा ! दरिद्रताका उपहास कर रहे हैं-. आप ! बात, धन्यकुमारके मनमें शूल-सी चुभी ! बोला -- 'अच्छा, मेरा ही सही ! लेकिन मैं अब उसे तुम्हें देता हूँ ! प्रेम मानते हो, तो स्वीकार करो -- उसे !' हलबाहकके अधरोंमें स्पन्दन हुआ, कुछ शब्द 'वह मेरा नहीं है--भाई ! तुम्हारे खेतमें जो कण्ठसे बाहिर आनेके लिए उद्यत हुए ! पर कुछ हैं, सब तुम्हारा हूँ !' वह बोल न सका ! 'वह नहीं मान सकता- मैं ! अगर मेरा होता, स्वप रह गया !!!
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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