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वर्ष ,किरण ]
सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिदि और रानवार्तिक
मिलता है-"सिद्धमन सैद्धान्तिक थे और आगम- किया गम है कि 'वाचक तो पूर्ववित हैं वे ऐसे शास्त्रोंका विशाल ज्ञान धारण करने के अतिरिक्त वे ( प्रमत्तगीत जैसे ) आर्षविरोधी वाक्य कैसे
आगमविरुद्ध मालूम पड़ने वाली चाहे जैनी तर्क- लिख सकते है ? सूत्रसे अनभिज्ञ किमीन भ्रांतिसे सिद्ध बातोंका भी बहुत ही आवेशपूर्वक खंडन लिख दिये हैं अथवा किन्हीं दुर्विदग्धकोंन अमुक करने थे ।" और पराश्रित रचनाका अभिप्राय कथन प्रायः सर्वत्र विनष्ट कर दिया है । इसीसे भाष्यानुसार टीका लिखनका जान पड़ता है। भाष्य-प्रतियोंमें अमुकभिन्न कथन पाया जाता है, परन्तु भाष्यके अनुपार टीका लिखनेमें भाष्य जो अनार्ष है। वाचक मुख्य सूत्रका-श्वे. भागम रचनाके प्रामाद और अथपृथक्करण करनेमें क्या का उल्लंघन करकं कोई कथन नहीं कर सकते । बाधक है,यह कुछ समझ नहीं आया ! सिद्धमेन- ऐमा करना उनके लिये असम्भव है* इत्यादि।' न तो भाष्यकी वृत्ति लिखते हुए भाष्यमे अथवा इन्हीं सब प्रकृतिभेद, योग्यताभेद और लक्ष्यभाष्यक शब्दों पर उपलब्ध नहीं होने वाले कथन भेदको लिये हुये खींचातानी आदि कारणोंसे को भी खूब बढ़ाकर लिखा है, ऐमी हालतमें वह मिद्धसेनकी वृत्ति में भाषाका वह प्रासाद, रचनाकी माध्य रचनाकं प्रामाद और अर्थ के पृथक्करण करने वह विशदता और अर्थका वह पृथकरण एवं में कैसे बाधक हो सकता है ? फिर भी इन दोनों स्पष्टीकरण आदि नहीं प्रासका है जो सर्वार्थसिद्धि में मे प्रकृति-भेद उममें कुछ कारण जरूर हो और राजवार्तिकमें पाया जाता है । राजवार्तिक मकना है। अच्छा होता यदि इसके साथमें योग्यता- और सर्वार्थसिद्धिका मामने न होना इसमें कोई भेदको और जोड़ दिया जाना; क्योंकि मब कुछ कारण नहीं है। साधन सामग्रो के सामने उपस्थित होनेपर भी तद्रूप "सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिन इति", योग्यताके न होने में वैमा कार्य नहीं हो सकता। नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारिभाष्यं, किं तर्हि ? प्रमत्तगीतपरन्तु मुझे तो सिख मनीय वृत्ति के सूक्ष्म दृष्टिमे
मेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवं विधमार्षविसंवादि अवलोकन करने पर इसका सबसे जबर्दस्त कारण।
निवघ्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुपजातभ्रान्तिना केनापि यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें
रचितमेतद्वचनकम्"।
न कितनो ही बातें ऐसी पाई जाती हैं जो श्वेताम्बरीय
--तत्त्वा० भाष्य० वृ०६,६, पृ० २०६ भागमके विरुद्ध हैं । सिद्धसेनने अपनी वृत्ति . "एतथान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं लिखते समय इस बातका खास तौरसे ध्यान रक्खा सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धकैयन पण्णवतिरन्तरद्वीपका है कि जो बातें भाष्यम भागमकाविरुद्ध पाई जाती भाष्येसु प्रयन्ते । अनार्ष चैतदभ्यवसीयते जीवाभिगहैं उन्हें किसी भी तरह भागमके साथ संग्रत बनाया मादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्यपनात्, नापि वाचक जाय, और जहां किसी भी प्रकार अपने बागम मुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधस्यसम्माम्यमानत्वात् तस्मात् सम्प्रदायके साथ उनका मेल ठीक नहीं बैठ सका, सैदान्तिकपाशैविनाशितमिवमिति"। वहाँ इस प्रकारके वाक्य कह कर ही संतोष धारण
--भाष्य वृ० ३ १६, पृ. २६७०