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________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीरनिर्वाण सं०२४६६ प्रस्तावनामें निम्न तीन कल्पनाएँ की हैं: इम वाक्यमें "सिद्धिविनिश्चयके जिस सृष्टि(१) "सर्वार्थमिद्धिकी रचना पूर्वकालीन परीक्षा-प्रकरणके विशेष वर्णनको देखनके लिये होने से सिद्धसेन समयमें वह निश्चय रूपमे प्रेरणा की गई है वह प्रकरण सिद्धिविनिश्चयके विद्यमान थी, यह ठीक है; परन्तु दूरवर्ती देश-भेद 'आगम' नामक सातवें प्रस्तावमें बहुत विस्तारके होने के कारण या किसी दूसरे कारणवश सिद्धसन साथ वर्णित है। जब सुदूर देश दक्षिणमें निर्मित को सर्वार्थसिद्धि देखने का अवसर मिला नहीं हुआ 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ सिद्धसेन तक पहुँच जान पड़ता।" गया इतना ही नहीं बल्कि वह इतना प्रचार पा (२) "राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकको गया था कि उस परसे शेष विषयको देखने तककी रचनाके पहले ही सिद्धमेनीय वृत्तिका रचा जाना योजना कर लेनकी प्रेरणा कीगई है, तब राजवाबहुत सम्भव है; कदाचित् उनसे पहले यह न रची तिक जैसे अधिक जनतोपयोगी ग्रंथका सिद्धसेन गई हो तो भी इमकी रचनाके बीच में इतना तो तक न पहुंचना कैसे अनुमानित किया जा सकता कमसे कम अन्तर है ही कि सिद्धसेनको राजवार्तिक है ? खाम कर ऐसी हालतम जब कि वह तत्त्वार्थऔर श्लोकवानिकका परिचय मिलनेका प्रसंग ही सूत्रका भाष्य लिखन बैठें, और उसी तत्त्वार्थसूत्र नहीं आया ।" पर रचे हुये उन अकलंकदेवकं भाष्यको प्राप्त करके __ (३) "इमके (सिद्धसेनीय वृत्तिमें सर्वार्थसिद्धि देखनका प्रयत्न न करें,जिनक असाधारण पाण्डित्य और राजवानिक समान जो भाषाका प्रासाद, एवं रचना-कौशलमे वे सिद्धिविनिश्चय-द्वारा रचनाकी विशदता और अर्थका पृथक्करण नहीं परिचिन हो चुके हों। पाया जाता उसके) दो कारण हैं । एक तो ग्रंथकार सर्वाथमिद्धिकी रचना तो राजवार्तिकसे एक का प्रकृतिभेद और दूमरा कारण पराश्रित शताब्दीस भी अधिक वर्ष पहले हुई है और रचना है।" सिद्धसेनके समयमें उसका उत्तर-भारतमें काफी __इन तीनों कल्पनाओंमें से प्रथमकी दो कल्प- प्रचार हो चुका था, सिद्धसेनको उसके देखनेका नाओंमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग ही नहीं आया ऐसा कहना युक्ति संगत अकलंकदेव सुनिश्चितरूपसे सिद्धसेन गणोके मालूम नहीं होता। आगे इस लेखमे स्पष्ट किया पूर्ववर्ती हुए हैं। सिद्धसेन गणोने उनके 'सिद्धि. जायगा कि सिद्धसेन गणीक सामने भाष्य लिखते विनिश्चय' प्रन्थका अपनी इस वृत्तिमें स्पष्टरूपसे समय उक्त दोनों दिगम्बरीय टीकाएँ मौजूद थीं, निम्न शब्दोंमें उल्लेख किया है:- और उन्होंने अपने भाष्यमें उनका यथोचित "एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्त- उपयोग किया है। निर्वतकादिरूपः सिद्धिविनिश्चय-सृष्टिपरिक्षातो योज- अब रही तीसरी कल्पना,उसमें जिन दो कारणों नीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेणेति ।” का वर्णन किया गया है उनमें से ग्रंथकार के प्रकृति-भाष्यत्ति १,३३, पृ० ३७ भेदका कुछ अाभास पं०सुखलालजीके इन शब्दोंमें
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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