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________________ वर्ष २, किरण १० ] कल्याणके लिये किया गया धर्मशास्त्रोंका अनुवाद मात्र है। तामिल भाषाका जैनसाहित्य परिस्थितिजन्य साक्षीको श्रोर ध्यान देने पर हमें ये बातें विदित होती है, कि नीलकेशी नामक ग्रन्थका जैन-टीकाकार इस सरलतासे अवतरण देता है और जब भी वह श्रवतरण उद्धृत करता है, तब अवतरण के साथ लिखता है " जैसा कि हमारे शास्त्रमें कहा है" इससे यह बात स्पष्ट है कि टीकाकार इस तामिल भाषा में महत्वपूर्ण जैनशास्त्र समझता था । दूसरी बात यह है कि तामिल भाषा के श्रजैन विद्वान् कृत "प्रबोध - चन्द्रोदय" नामक ग्रन्थसे भी यही ध्वनि निकलती है । यह तामिल-रचना संस्कृतके नाटक प्रबोधचंद्रोदयके श्राधार पर बनी है, यह बात स्पष्ट है । यह तामिल ग्रन्थ चार पंक्ति वाले विरुत्तम छन्दमें लिखा गया है । यह नाटकके रूपमें है, जिसमें भिन्न-भिन्न धर्मोंके प्रतिनिधि रङ्ग-भूमि पर श्राते हैं । प्रत्येक अपने धर्मके सारको बताने वाले पद्यको पढ़ता हुआ प्रविष्ट होता है । जब जैन-सन्यासी स्टेज पर लाता है, तब वह कुरलके उस विशिष्ट पद्यको पढ़ता है, जिसमें अहिसा - सिद्धान्तका गुण-गान इस रूप में किया गया है, भोजनके निमित्त किसी भी प्राणीका बघ न करना सहस्रों यज्ञोंके करने की अपेक्षा अधिक अच्छा है। यह सूचित करना श्रसत्य नहीं है कि इस नाटककारकी दृष्टिमें कुरल विशेषतया जैन ग्रन्थ था, अन्यथा वह इस पद्यको निर्ग्रन्यवाद के मुखसे नहीं कहलाता । यह विवेचन पर्याप्त है। हम यह कहते हुए इस बहसको समाप्त करते हैं कि इस महान् नीति ग्रन्थकी रचना प्राय: एक महान् जैन-विद्वान्के द्वारा ईस्वी सन्की प्रथम शताब्दीके करीब इस ध्येयको लेकर हुई है, अहिंसा - सिद्धान्तका उसके सम्पूर्ण विविध रूपोंमें प्रतिपादन किया जाय । ६०३ यह तामिल प्रमथ, जिसमें तामिल साहित्य के पांडित्यका सार भरा है, तीन विभागों तथा १३३ श्रध्यायोंको लिये हुए है । प्रत्येक अध्याय में दस पद्य हैं। इस तरह दोहारूप में १३३० पद्य हैं। इसकी तीन अथवा चार महत्वकी टीकाएं हैं। इनमें एक टीका महान् टीकाकार नच्चिनारविकनियर रचित है । ऐसा अनुमान है कि वह जैन परम्परा के अनुसार है, किन्तु दुर्भाग्य है कि वह विश्व के लिये श्रलभ्य है । जो टीका अत्र प्रचलित है उसके रचयिता एक परिमेलअलगर हैं और यह निश्चयसे नच्चिनार क्किनियरकी रचनासे बादकी है, और यह उससे अनेक मुख्य बातोंके श्रर्थं करने में भिन्न मत रखती है। हाल ही में माणक्कुदवर-रचित एक दूसरी टीका छपी थी । तामिल साहित्यके अध्ययनकर्ताओं को आशा है कि महान नच्चिनारक्किनियरकी टीका प्राप्त होगी और प्रकाशित होगी, किन्तु श्रवतक इसका कुछ भी पता नहीं चला है । यह ग्रंथ प्रायः सम्पूर्ण यूरोपियन भाषाओं में अनुवादित हो चुका है। रेवरेण्ड जी. यू. पोपका अंग्रेजी अनुवाद बहुत सुंदर है। यह महान् ग्रन्थ इसके साथमें नालदियार नामका दूसरा ग्रन्थ, जिसका हम हाल ही में वर्णन करेंगे, तामिल देशीय मनुष्योंके चरित्र और श्रादर्शोंके निर्माण में प्रधान कारण रहे हैं । इन दो नीति के महान ग्रन्थोंके विषयमें डाक्टर पोप इस प्रकार लिखते हैं: "मुझे प्रतीत होता है कि इन पथोंमें नैतिक कृतज्ञताका प्रबल भाव, सत्यकी तीव्र शोध, स्वार्थ-रहित, तथा हार्दिक दानशीलता एवं साधारणतया उज्ज्वल उद्देश्य श्रधिक प्रभावक है। मुझे कभी-कभी ऐसा अनुभव हुवा कि मानों इनमें ऐसे मनुष्योंके लिये भडार रूपमें आशीर्वाद भरा है जो इस प्रकारकी रचनाओंसे
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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