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________________ ६०४ अनेकान्त अधिक आनन्दित होते हैं और इस तरह सत्यके प्रति क्षुधा और पिपासाकी विशेषताको घोषित करते हैं। वे लोग भारतवर्ष के लोगों में श्रेष्ठ हैं तथा कुरल एवं नालदी मे उन्हें इस प्रकार बनने में सहायता दी है ।" अब हमें अपना ध्यान पिछले उल्लिखित ग्रन्थ नादिया की ओर देना चाहिये । कुरल और नालदियार एक दूसरे के प्रति टीकाका काम करते हैं और दोनों मिलकर तामिल जनता के सम्पूर्ण नैतिक तथा सामाजिक सिद्धान्तके ऊपर महान् प्रकाश डालते है ।" नालदियार का नामकरण ठीक कुरल के समान उसके छन्दके कारण हुआ है। नालदियारका अर्थ वेगबा छन्दकी चार पंक्तियोंमें की गई रचना है । इस रचनायें चार सौ चौपाई हैं और इसे बेलालरवेदम् - कृषकों की बाइबिल भी कहते हैं । यह ग्रंथकारकी कृति नहीं है । परम्परा कथन के अनुसार प्रत्येक पद्य एक पृथक् जैन मुनिके द्वारा रचा गया है । प्रचलित परम्परा सक्षेपसे इम प्रकार है। एक समयकी बात है उत्तरमें दुष्काल पड़नेके कारण आठ हजार जैनमुनि उत्तरसे पांड्य देशकी ओर गये, जहांके नरेशोंने उनको सहायता दी । जब दुष्कालका समय बीत गया तब वे अपने देशको लौटना चाहते थे । किन्तु राजाकी इच्छा थी कि उसके दरबार में ये विद्वान बने रहें । अन्त में उन साधुयोंने राजाको कोई खबर न कर के गुप्त रूप से बाहर जानेका निश्चय किया। इस तरह एक रात्रिको समुदाय रूपसे वे सब खाना हो गये । दूसरे दिन प्रभात काल में यह विदित हुआ कि प्रत्येक साधुने अपने श्रासन पर ताड़ पत्र पर लिखित एक २ चौपाई छोड़ दी थी । राजाने उनको वैगी नदीमें फेकने की आज्ञा दी किन्तु जब यह विदित हुआ कि नदीके प्रभाव के विरुद्ध कुछ ताड़ पत्र तैरते हुये पाये गये और तट पर गये, तब राजाकी आज्ञा से वे संगृहीत किये [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ और इस संग्रहको नाल दियारके नामसे कहा गया। हम ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि इस परम्परा कथनमें विद्यमान ऐतिहासिक सत्यके श्रंशकी जाँच करे । यदि हम इस परम्परा कथन पर विचार करें जो हमें इन आठ हजार जैन साधुयोंको भद्रबाहुके अनुयायियोंसे सबंधित करना होगा, जो उत्तर भारत में बारह वर्ष दुष्काल के कारण दक्षिण की ओर गये थे । ऐसी स्थिति में इस ग्रंथका निर्माण ईसवी सदीसे ३०० वर्ष पूर्व होना चाहिये | इस सम्बन्ध में हम कोई सिद्धान्त नहीं बना सकते । हम कुछ निश्चयके साथ इतना ही कह सकते हैं कि वह तामिल भाषा के नीति अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थोंमें एक है और प्रायः कुरलका समकालीन अथवा उससे कुछ पूर्ववर्ती है । बिखरे हुये चारसौ पद्य कुरलके नमूने पर एक विशिष्ट ढंग पर व्यवस्थित किये गये हैं । प्रत्येक अध्याय में दस पद्य हैं। पहला भाग श्ररम् (धर्म) पर है उसमें १३ अध्याय तथा १३० चौपाई हैं। दूसरे भाग पोल (अर्थ) में २६ अध्याय तथा २६० चौपाई हैं तथा 'काम' ( Love ) पर लिखे गये तीमरे विभाग में १० चौपाई हैं इस प्रकार ४०० पद्म तीन भागों में विभक्त है । इस क्रम के सम्बन्ध में एक परम्परा कहती है कि यह पांड्य नरेश उम्रपेरुबालुतिके कारण हुई किन्तु दूसरी परम्परा पदुमनार नामक जैन विद्वानको इसका कारण बताती है। तामिल भाषाके अष्टादस नीति ग्रन्थों में कुरल और नारदियाल अत्यन्त महत्व पूर्ण समझे जाते हैं इस ग्रन्थ में निरुपित नैतिक सिद्धान्त जाति अथवा धर्मके भेदों को भुलाकर सभी लोगोंके द्वारा माने जाते हैं। तामिल साहित्य के परम्परागत अध्ययनके लिये इन दोनों ग्रन्थोंका अध्ययन आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति तब तक तामिल विद्वान कहे जानेका अधिकारी नहीं है जब तक कि वह इन दोनों महान् ग्रंथोंमें प्रवीण न हो । क्रमशः
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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