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________________ वर्ष ३, किरण १२१ प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा उसको स्वीकार करता है और इसलिये जो जिस रूपमें उद्धृत कीगईहै वह नित्यावस्थितान्यरूपाणि' का निषेध (खण्डन ) नहीं करता वह वास्तव में इस तृतीय सूत्रमें आए हुए 'अवस्थितानि' पदके उसका खण्डन (अस्वीकार ) किया करता है !! भाष्यकी है। इससे पहले द्रव्याणि जीवाश्च'इस द्वितीय अनेकान्तके पाठकों को इस से पहले शायद ऐसी सूत्रके भाष्यमें लिखाहै एते धर्मादयश्चत्वारो जीवानई युक्तिके आविष्कार का अनुभव न हुआ हो! श्व पंचद्रव्याणि च भवन्तीति" अर्थात धर्म, अधर्म, परन्तु खेद है कि प्रो० साहब अपने लेख में सर्वत्र आकाश, पुद्गल ये चार तो अजीवकाय(जीवाइस नवाविष्कृत युक्ति एवं सिद्धान्त पर अमल स्तिकाय) और पांचवे जीव (जीवास्तिकाय) मिला करते हुए मालूम नहीं होते ! और इसलिये इसके कर 'पांचद्रव्य' होते हैं-पांचकी संख्याको लिये हुग लिखने अथवा निर्माण में जरूर कुछ भूल हुई ध्रौव्यत्वका विषयरूप द्रव्य होते हैं । यहां द्रव्य होते जान पड़ती है। इसी तरह एक स्थान पर आप हैं, अस्तिकाय होतेहैं अथवा पंचास्तिकाय होते हैं लिखते हैं कि 'काय' शब्द का ग्रहण प्रदेशबहुत्व ऐसा कुछ न कहकर जो खास तौरसे 'पंचद्रव्य होते बताने के लिये किया गया है" और फिर उसके हैं' ऐसा कहागया है उसका कारण द्रव्योंकी इयत्ता अनन्तर. ही यह लिखते हैं कि "कालद्रव्य बहुप्रदेशी बतलाना-उनकी संख्याका स्पष्टरूप में निर्देश करना होने से कायवान नहीं।" ये दोनों बातें भी परस्पर है। इसकी पुष्टि अगले सूत्रके अवस्थितानि पदके विरुद्ध हैं, क्योंकि सूत्र में 'काय' शब्द का प्रयोग भाष्यमें यह कहकर कीगई है कि "न हि कदाचिप्रदेशबहुत्व को बताने के लिये हुआ है और काल संचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति अर्थात् ये द्रव्यको प्रो० साहब बहुप्रदेशी लिखते हैं तब वह द्रव्य कभी भी पांचकी संख्याका और भूतार्थता कायवान क्यों नहीं ? और यदि वह कायवान् (स्वतत्व) का अतिक्रम नहीं करते-सदाकाल अपने नहीं है तो फिर उसे 'बहुप्रदेशी' क्यों लिखा गया? स्वतत्व तथा पाचकी संख्यामें अवस्थित रहते हैं। यहां जरूर कुछ गलती हुई जान पड़ती है। मैं इसका सष्ट आशय यह है कि नतो इनमें से कोई चाहता था कि इस ग़लतीको सुधार दूं परन्तु द्रव्य कभी द्रव्यत्वसे च्युत होकर कम होसकता है मजबूर था; क्यों के प्रो० साहब का भारीअनुरोध था और न कोई दूसरा पदार्थ इनमें शामिल होकर कि उनका यह लेख बिना किसी संशोधनादिके द्रव्य बनमकता तथा द्रव्योंकी संख्याको बढासकता ज्यों का त्यों छापा जाय । इसीसे मैंने लेख में 'बहु- है। और इसलिये भाष्यकार का अभिप्राय यहां प्रदेशी होने से' के आगे ब्रेकट में प्रभात लगा अरितकायों की संख्यासे न होकर द्रव्योंकी संख्या दिया था, जिससे यह गलती प्रेस की न समझली से हीहै। इसीसे सिद्वसेन गणिने भी अपनी टीकामें जाय। अस्तु। द्रव्य के नवादि भेदोंकी आलोचना करतेहुए लिखा अब देखना यह है कि प्रो साहबने शंका उठाकर है-“कालश्चकीयमनेन द्रव्यमिति वक्ष्यते वाचकमुउसका जो समाधान किया है वह कहांतक ठीक है। ख्यस्य पंचवेति", अर्थान काल किसीके मतसे द्रव्य शंकामें भाष्यकी जो पंक्ति कुछ गलत अथवासंस्कारित है ऐसा कहा जायगा परन्तु उमास्वाति वाचक के
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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