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________________ ३, किरण ] पण्डितप्रवर पाशापर धर्मामृत-टीका १२९६ में और अनगारधर्मामृत- है भइनकीर्ति-प्रबन्ध' नामका एक प्रबन्ध है। टीका १३०० में समाप्त हुई है । जिनयज्ञकल्पकी उसका सागश यह है कि मदनकीर्ति वादीन्द्र प्रशस्तिमें जिन दस ग्रन्थोंके नाम दिये हैं, वे विशालकीर्तिके शिष्य थे । वे बड़े भारी विद्वान थे। १२८५ के पहले के बने हुए होने चाहिएं । उसके चारों दिशाओंके वादियोंको जीतकर उन्होंने बाद सागारधर्मामृत टीकाकी समाप्ति तक अर्थात 'महाप्रामाणिक-चूड़ामणि' पदवी प्राप्त की थी। १२९६ तक काव्यालंकार-टीका, सटीक सहस्रनाम, एक बार गुरुके निषेध करने पर भी वे दक्षिणा सटीक जिनयज्ञकल्प, सटीक त्रिषष्टिस्मृति, और पथको प्रयाण करके कर्नाटकमें पहुंचे। वहाँ विद्धनित्यमहोद्योत ये पांच ग्रंथ बने । अन्तमें १३०० त्प्रिय विजयपुरनरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य तक राजीमती-विप्रलम्भ, अध्यात्मरहस्य, रत्नत्रय- पर मोहित हो गये और उन्होंने उनसे अपने विधान और अनगारधर्म-टीकाकी रचना हुई। पूर्वजोंके चरित्र पर एक प्रन्थ निर्माण करनेको इम तरहम मोटे तौरपर प्रन्थ-रचनाका समय कहा । कुन्तिभोजकी कन्या मदन-मञ्जरी सुलेखिका मालूम हो जाता है। ___ थी। मदनकीर्ति पद्य-रचना करते जाते थे और त्रिषष्टिस्मृतिकी प्रशस्तिमे मालूम होता है कि मञ्जरी एक पर्दे की बाड़में बैठकर उसे लिखती वह १२९२ में बना है। इष्टोपदेश टोकामें समय जाती थी। नहीं दिया। कुछ समयमें दोनोंके बीच प्रेमका आविर्भाव सहयोगी विद्वान् हुआ और वे एक दूसरेको चाहने लगे। जब राजा १ पविडत महावीर-ये वादिराज पदवीमे को इसका पता लगा तो उसने मदनकीर्तिको षष विभूषित पं० धरमेनके शिष्य थे। पं०पाशाधरजी करनेकी आज्ञा दे दी । परन्तु जब उनके लिए ने धारामें आकर इनमें जैनन्द्र व्याकरण और कन्या भी अपनी महेलियोंके साथ मरनेके लिए जैन न्यायशास्त्र पढ़ा था। तैयार हो गई, तो राजा लाचार हो गया और ___२ उदयमेन मुनि-जान पड़ता है, ये कोई उसने दोनोंको विवाह-सूत्रमें बाँध दिया । मदनवयोज्येष्ठ प्रतिष्ठित मुनि थे और कवियोंके सुहृद् कीर्ति अन्त तक गृहस्थ ही रहे और विशालकीर्ति थे। इन्होंने पं० श्राशाधरजीको 'कलि-कालिदाम' द्वारा बार बार पत्रोंमे प्रबुद्ध किये जाने पर भी कहकर अभिनन्दित किया था। टमम मम नहीं हुए। यह प्रबन्ध मदनकीर्तिस मदनकीति पतिपति-ये उन वादीन्द्र विशाल- कोई मौ वर्ष बाद लिखा गया है। इससे सम्भव के शिष्य थे जिन्होंने पण्डित आशाधरसे न्याय- है इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो अथवा इसका शास्त्रका परम भन प्राप्त करके विपक्षियोंको जीता अधिकांश कल्पित ही हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं था। मदनकीर्तिके विषयमें राजशेखरसूरिके 'चतु- कि मदनकीर्ति बड़े भारी विद्वान और प्रतिभाशाली विशति-प्रबन्ध' में जो वि० सं० १४०५ में निर्मित कवि थे । और इसलिये उनके द्वारा की गई हुआ है और जिसमें प्रायः ऐतिहासिक कथायें दी भाशाधरकी प्रशंसाका बहुत मूल्य है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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