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________________ ४६८ ] अनेकान्त [वैसाख, वीर निर्वाण सं० २४६६. - चिन्ता-विकाशके क्रमके विषयमें उत्पन्न हुई भ्रान्त- समक्ष प्रचार करना अवश्य ही गौरवमय प्रत था, धारणाकं अपर अवलम्बित जान पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमारी समझमें इसके ___ कारण, विचार-वृत्ति, जब मनुष्य-प्रकृतिका अतिरिक्त उनलोगों ने तो कुछ भी नहीं किया। एक विशिष्ट लक्षण माना जाचुका है, तब यह मूलतत्वकी दृष्टिसे बौद्ध और जैनमत बुद्ध और निम्सन्देह कहा जा सकता है कि, मनुष्य समाज वर्द्धमानके जन्मकालके बहुत पहलेसे ही वर्तमान में चिरकालसं कुछ न कुछ अध्यात्मचिन्ता या था, अत: उपनिषद की तरहसे दोनों ही मत तत्वविचार होता ही चला आरहा है । यहाँतक कि प्राचीन कहे जासकते हैं। जिस समय समाज अर्थहीन क्रियाकाण्डकं बौद्ध और जैन मतको उपनिषद्के समकालीन जालमें फंसा हुआ जान पड़ता है उस अवस्थामें होनेका कोई निर्दशन नहीं मिल रहा, इसी कारणसे भी कुछ न कुछ अध्यात्म चर्चा बनी ही रहती है। इन दोनों मतोंको उपनिषद्की वरह प्राचीन वस्तुतः क्रियाकाण्डके सम्बन्ध ही में यह कहा जा नहीं कहा जा सकता, ऐसी युक्तियाँ कदापि समीसकता है कि क्रियाकाण्ड भी सामाजिक शैशवकी चीन नहीं हो सकती । स्पष्टवया उपनिषदें वेदोंके सोई हुई मूदताके ऊपर एक प्रकारकी आध्यात्मि- प्रतिकूल नहीं थी, इसीलिये उनकी शिष्यमण्डली. कताको अवधारणा है। सम्यक्पमें परिस्फुट न की संख्या सबसे अधिक थी। पहले पहल अवैहोने पर भी समाजको प्रत्येक अवस्थामें ही एक दिक गतसमूह किंचित रूपमें सन्देहपूर्ण थे, इसी. विचार-वृत्ति प्रचलित नीति-पद्धतिको अतिक्रम लिये उन्हें आत्मप्रकाशके लिये बहुत दिनों तक करनेकी तथा ऊँचेसे ऊँचे आदर्शकी ओर प्रतीक्षा भी करनी पड़ी; किन्तु अध्यात्मवादके आगे बढ़नेकी स्पृहारुपमें सदा बनी ही रहती है। रूपमें वे उपनिषदके समयमें मौजूद थे, इसमें कोई इसीलिये दर्शनोंका जन्मकाल-निरुपण प्रायः सन्देह नहीं है। चिन्ताशील महापुरुषोंने तत्वचर्चाअसाध्य होजाता है । जो लोग भिन्न भिन्न प्रसङ्गमें केवल उपनिषदोंके बताये हुए मार्ग ही को दर्शनों के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं, उनलोगोंके पहले एकमात्र मार्ग नहीं समझा जबकि चिन्ता गति भी वे ही दर्शन-मत बीजरूपमें विद्यमान थे, यह वे रोक थी और तत्वलोचनाके फलस्वरूप अवैदिक कहनेमें अत्युक्ति न होगी। बौद्धमत बुद्धके द्वारा मार्ग भी आविष्कृत हो चुके थे। ऐसी दशामें एवं जैनमत महावीरसं पैदा हुआ है, यह भी एक अन्यान्य मतवादोंकी अपेक्षा उपनिषद मतवाद भी प्रकारको भ्रान्त धारण है। इन दोनों महापुरुषोंके कुछ ऐमा सहजबोध्य नहीं था कि यह अनुमान जन्मप्रहणकं बहुत पहलेसे बौद्ध तथा जैनशासनके किया जा सके कि सबसे पहले यही प्राविष्कृत मूलतस्व-समूह सूत्ररुपमें प्रचलित थे, उन तत्व- हुआ था। समूहोंको विस्तृतरूपमें प्रगट करके उनकी मधु- वैदिक या अवैदिक मतवादशेने यदि एक ही रखा तथा गम्भीरताको सर्व साधारण जनताके समयमें पैदा होकर कमशः उत्कर्ष लाम किया हो
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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