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________________ वर्ष ३, किरण ] भारतीय दर्शनों में जैन-दर्शनका स्थान [४६९ तो उनके अन्दर बहुत से तत्व समान भी रह गये में हो दो चार बातें बतानी हैं । जैनमतके निर्देशके होंगे, ऐसा अनुमान असङ्गत नहीं हा सकता। लिए उसके माथ अन्यान्य मतवादोंकी तुलना अतएव भारतीय किसी भी विशिष्ट दर्शनके अध्य. नीचे लिखे गये ढङ्ग से ही की जा सकती है। यन करनेके ममय भारतवर्षके अन्यान्य प्रसिद्ध वस्तुत: जैमिनीय दर्शनको छोड़कर भारतवर्षके दर्शनोंकी तुलनाकी भी बहुत बड़ी आवश्यकता है। प्रायः सभी दर्शन खुले या छिपे रूपमें वेदोक्त बङ्ग देशमें जैन-दर्शनकी अधिक चर्चा या क्रियाकलापके अन्धविश्वासकं प्रति विद्वेषभावापन्न जैसा चाहिये वैसा उसका आदर न होने परभी देखे जाते हैं । सच पूछिये तोसंसारमें प्रायः सर्वत्र यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारतवर्ष यावतीय अन्धविश्वासकं प्रति युक्तिवादके अषिराम संग्राम दार्शनिक मतवादोंमें इसका एक गौरवमय स्थान हो को दर्शनकं नामकी आख्या दी जो मकती है। अवश्य रहा है, और आज भी है । तत्वविद्याके वर्तमान प्रबन्धमें हमें भारतीय दर्शन-समूहोंको जो यावतीय अङ्ग इसमें विद्यमान होने के कारण जैन इसी दृष्टिकोणसे उनके प्रत्येक प्रधानतत्वोंकी दर्शनको एक सम्पूर्ण दर्शन मान लेनेमें कोई मत आलोचना करना है । स्मरण रहे भारतीय दर्शनभेद नहीं होना चाहिये । वेदोंमें तर्कविद्याका उप समूहोंका जो क्रम-विकास इस प्रबन्धमें दिखलाया देश नहीं है, वैशेषिक कर्माकर्म या धर्माधर्मको जायगा वह मात्र युक्तिगत Logical है, कालगत शिक्षा नहीं देता; किन्तु जैन-दर्शनमें न्याय, तत्व Choronological नहीं। अनन्तकल्प, अर्थहीन वैदिक क्रियाकाण्डोंविचार, धर्मविचार, धर्मनीति. परमात्मतत्व आदि का पूर्ण प्रतिवाद उपस्थित चार्वाक सूत्रों ही में सभी बातें विशदरूपमें विद्यमान हैं। जैनदर्शन प्राय: देखा जाता है। प्रत्येक समाजमें प्रतिवाद प्राचीनकालके तत्वानुशीलनका सचमुच एक अन करनेवाला एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय सदासे चला मोल फल है, क्योंकि जैन दर्शनको यदि छोड़ दिया आ रहा है, तदनुसार प्राचीन वैदिकसमाजमें भी जाय तो सारे भारतीय दर्शनोंकी आलोचना एक ऐसा सम्प्रदाय अवश्य था। वैदिक क्रियाअधूरी रह जोयगी, यह अकाट्य सत्य है। काण्डों पर भाषामे आक्रमण करना किसी समयमें किस ढङ्गसे जैन दर्शनकी आलोचना करनी भी कठिन बात न थी। असल बात नो यह है कि चाहिये. ऊपर बताया जा चुका है। हम लोगोंकी कोई भी विचारशील या तत्वका जाननेवाला बालोवना तुलानामूलक हुआ करती है और ऐसी मनुष्य बहुत दिनों तक ऐसे कर्मकाण्डोंमें सन्तुष्ट आलाचनायें निम्सन्देह एक कठिन विषय है, नहीं रह सकता । ऐसी दशा में प्रतिवाद करनेका सुतरां इस प्रकार की आलोचनाओंके लिये जबतक उच्छवास सारे यज्ञसम्बन्धीय विधि-विधानोंके प्रायः सभी भारतीय दर्शनोंके सम्बन्धमें पूरी अभि- लिये यदि एक निन्दाकर कारण बन जाय तो ज्ञता या जानकारी न हो सफलता प्रायः असम्भव इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है। यही है। किन्तु हम तो इस प्रबन्धमें मूलतत्वकं विषय चार्वाकदर्शन है, वैदिक कर्मकाण्डोंका अविराम
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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