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________________ ४७.] अनेकान्त [वैसाख, वीरनिर्वाण सं० २६६४ मुंडक २७ प्रतिवाद, चार्वाक दर्शनको प्रतिवादका दर्शन थे। जिन उपनिषदोंको वेदोंका अंश माना जाता कहना चाहिये । प्रीक देशक सोफिष्ट सम्प्रदायकी है, उन्हीं उपनिषदों में भी यत्र-तत्र कर्मकाण्डोंके तरह चार्वाक-दर्शन भी इस बिराट् विश्व-ब्रह्माण्डके दोष बतालाये गये हैं । बहुत सं उदाहरणोंमें से विषयमें कभी कोई मतामत नहीं प्रगट करता, नीचेका एक यह भी है:तोड़ना, दोष, मढ़ देना और न मानना यही तो प्रवाहोते अढा यज्ञरूपा अष्टादशोचार्वाकदर्शनका सिद्धान्त है। प्रशंसा करना तो दूर, क्रमबरं येषु कर्म ऐतत् श्रेयो येऽअभिनन्दति किसी भी वस्तुको गाइदेना ही चार्वाकोंका एकमात्र मूढा जरा मृत्यु ते पुनरेवापि यान्ति । कार्य था। वेद परलोकको मानता था, चार्वाक उसे तात्पर्य यह हैअम्वीकार करता था । कठोपनिषद्की द्वितीय यज्ञसमह और उसके अष्टादश अङ्ग व कम बल्लीके छठे श्लोकमें इस प्रकारके नास्तिकवादका सभी अदृढ़ और नाशवान हैं। जो मूढ़ उन्हें श्रेय परिचय भी मिलता है मानकर पालन करने हैं वे पुनः पुनः जरा-मृत्युको न साम्परायः प्रतिभाति बालं- प्राप्त होते हैं। प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूडम् । किन्तु उपनिषद और चार्वाक मतमें जो प्रभेद अयं लोको नास्ति पर ईति मानी है वह यह है-उपनिषदोंमें एक ऊचे ऊचे और पुनः पुनवेंशमापद्यते मे ॥ महान महान सत्यका मार्ग दिखनानेके लिये उक्त श्लोकमें परलोकके प्रति विश्वासहीन कर्मकाण्डकी समालोचना की गई है, पर नास्तिक मनुष्यकं विषयमं ही ऐसा कहा गया है। कठोप- और चार्वाक केवल दोषान्वेषण और उन्हें बुरे निषदकी छठी पल्लीके द्वादश श्लोकमें इस प्रकार बतलानेक अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं करते थे। नास्तिकवादके दोष दिखलाये गये हैं। चार्वाक दर्शन विधिहीन निषेधवाद तथा वैदिक "मस्तीति अवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते" विधि-विधानोंकी निन्ना करना ही अपना एकमात्र कठोपनिषकी प्रथम बल्ली बीसवें श्लोक में उद्देश्य ममझता था। हाँ, यह तो अवश्य ही मानना भी परलोक अविश्वामी व्यक्तियोंकी ही भर्त्सना है- पड़ेगा कि मुक्तिवादको उत्पत्ति चार्वाक दर्शनस ही "येयम्प्रेते विचिकत्मा मनुष्योस्तीऽत्यके हुई थी और भारतवर्ष अन्यान्य दर्शनो द्वारा इस __नायमस्तीति चेके, युक्तिवादकी पुष्टि होती चली गई। वेद यज्ञसम्बन्धीय कर्मकाण्डोंका उपदेश दता नास्तिक चार्वाक मतकी तरह जैनदर्शन में भी है, किन्तु आस्तिकगण उन यज्ञ कर्मोकी निःसारता वैदिक कर्मकाण्ड की असारता पतलाई गई है, बतलाते हैं, और न केवल उनका खण्डन ही करते जैनदर्शनने खुलमखुल्ला वेदकं शासनको न मानते थे किन्तु उन विधानोंको जनताके समक्ष हाम्या- हुए नास्तिकोंकी तरह यज्ञादिकी निंदा भी अवश्य स्पद मानेमें भी किंचित्मात्र कुण्ठित नहीं होते की है, जहांवक अनुमान होता है, चार्वाक मतके
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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