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________________ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ भगवान महावीरने अपनी इस उदारना, निर्भीकना एवं अन्याय प्रतीत होता है। जैनधर्ममें तो पहलेमे ही हृदयकी विशालताके कारण ही उस समयकी विकट स्त्रियोंने प्रायिका प्रादिको दोषा लेकर प्राचारांगकी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की थी। पद्धतिके अनुसार यथाशक्ति नपश्चरणादि कर देवेन्द्रादि इसके सिवाय, भगवान् महावीरने अहिंसा और पद प्राप्त किये हैं। अनेकान्तको अपने जीवन में उतारा था, उनकी प्रान्मा मच पूछिये तो धर्म किमी एक जाति या सम्प्रदायशुद्धि तथा शक्तिको पराकाष्ठाको---चरम सीमाको -- की मीगम नहीं है, वह तो वस्तुका स्वभाव है उसे पहुँच चुकी थी और उनका शासन दया दम, त्याग तथा धारण करने और उसके द्वारा प्रान्माका विकास करनेका समाधिकी तत्परताको लिये हुए था। इसी लिये विरोधी मभी जीवोंको अधिकार है भले ही कोई जीव अपनी प्रास्मानों तथा तत्कालीन जनसमूह पर उनका इतना अल्पयोग्यताके कारण परा अात्मविकास न कर सके। अधिक एवं गहरा प्रभाव पड़ा था कि वे लोग अधिक परन्तु इससे उसके अधिकारोंको नहीं छीना जा सकता। संख्या में अपने उन अधर्ममय शुष्क क्रियाकाण्डोंको जो धर्म पतितोंका उद्धार नहीं कर सकता---उन्हें ऊँचा छोड़कर तथा कदाग्रह और विचारसंकीर्णताकी जंजीरों- नहीं उठा सकता-वह धर्म कहलानेके योग्य ही नहीं। को नोड़कर बिना किसी हिचकिचाकटके वीर भगवानकी जैनधर्म में धर्मकी जो परिभाषा श्राचार्य समन्तभद्रने शारणमें पाये, और उनके द्वारा प्ररूपिन जैन धर्मके बतलाई है वह बड़ी ही सुन्दर है। उसके अनुसार जो नत्वोंका अभ्यास मनन एवं नदनुकूल वर्नन करके अपना संमारक प्राणियोंको दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुग्व में भारमाके विकास करने में तत्पर हुए। धारण करे उये 'धर्म' कहते हैं, अथवा जीवकी सम्यग्दवीरशासनमें स्त्री और पुरुषोंको धार्मिक अधिकार र्शन. सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणतिविशेष समानरूप प्राप्त है । जिस तरह पुरुष अपना योम्यना- को 'धर्म' कहने हैं । इस परिणतिकं द्वारा ही जीवाल्मा नुसार श्रावक और मुनिधर्मको धारण कर प्रात्मकल्याण आत्म उद्धार करनेमें सफल हो सकता है। कर सकते हैं उसी तरहमे स्त्रियाँ भी अपना योग्यतानुसार परन्तु ग्वेद है कि आज हम भगवान् महावीरके श्राविका और आर्यिकाके व्रतोंका पालनकर श्रात्मपवित्र शासनको भूल गये । इसी कारण उनके महत्वकल्याण कर सकती हैं। भगवान महावीरके मंघमें एक पूर्ण सन्देशसे प्राज अधिकांश जनता अपरिचित ही लाग्य श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ तथा चौदह दिखाई देती है। हमारे हृदय अन्धश्रद्धा और स्वार्थमय हजार मुनि और छत्तीस हजार प्रायिकाएँ थीं । आर्यि- प्रवृत्तियोंसे भरे हुए हैं, ईर्ण द्वेष-अहंकार प्रादि दुगुणों कामों में मुख्य पदकी अधिष्ठात्री चन्दना मनी थी। से दषित हैं। स्त्रियों के साथ आज भी प्रायः वैसा ही वीरशासनमें गृहस्थोचित कर्तव्योंका यथेष्ट रूपमे पालन व्यवहार किया जाता है जैसा कि अबसे ढाई हजार वर्ष करते हुए स्त्रियोंको धर्मसंवनमें कोई रुकावट नहीं है, पहले किया जाता था। हाँ, उसमें कुछ सुधार ज़रूर जबकि संसारके अधिकांश धर्मोमें स्त्रियोंको स्वतंत्ररूपसे हुआ है; परन्तु अभी भारतीय सी समाजको यथेष्ट स्वतधर्मसेवन करनेका थोडासा भी अधिकार प्राप्त नहीं है, न्त्रता प्राप्त नहीं हुई है। फिर भी धर्म-सेवनकी जो कुछ और जिससे उनके प्रति उन धर्मसंस्थापकोंका महान् स्वतन्त्रता मिली है उसमें यदि स्त्रीसमाज चाहे तो वह
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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