SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त (वर्ष ३, किरण १. DURAL के भी विभन्न प्रकारके हैं। कोई भोगमार्गको, कोई जानना जरूरी होता है । यह सब इसलिये न कि त्याममार्गको,कोई श्रद्धा मार्गको, कोई भक्तिमार्गको, जो बात हमें जाननी अभीष्ट है, उसकी लोकमें कोई शानमार्गको,कोई कर्मयोगको, कोई हठयोगको कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह तो विराट सत्यउपयोगी मार्ग बतलाते हैं। ___ का एक सत्यांश मात्र है ।। ये समस्त सत्यांश, .ये समस्त मार्ग दो मूल श्रेणियोंमें विभक्त ममस्त तत्त्व, जिनको जाननेकी हमें इच्छा है, गुणकिये जा सकते हैं-एक प्रवृत्तिमार्ग दूसरा निवृ गुणी, कारण-कार्य, माधन-साध्य, वाचक-वाच्य, त्तिमार्ग छ । पहला मार्ग वायमुखी और व्यवहार ज्ञान-शेय, श्राधर- आधेय आदि अनेक सम्बन्धोंदृष्टिवाला है, दूसरा मार्ग अन्तर्मुखी और प्राध्या- द्वारा एक दूसरेके इतने आश्रित और अनुगृहीत त्मिकदृष्टिवाला है और पारमार्थिक कल्पनाओंको हैं कि यदि हमें एक तत्वका सम्पूर्ण बोध हो जाय लिये हुए है। पहला अहंकार, मूढ़ता और मोहकी तो वह सम्पूर्ण तत्त्वोंका, सम्पूर्ण सत्यका बोध उपज है, दूसरा अात्मविश्वास, सज्ज्ञान और होगा। इसीलिये ऋषियोंने कहा है कि जो ब्रह्मको पूर्णताकी उत्पत्ति है । पहला प्रेयस है दूसरा श्रेयस जानता है वह ब्रह्माण्ड को जानता है । । इसलिये है। पहला इन्द्रियतृप्ति, इच्छापूर्ति और आडम्बर- आत्मा ही ज्ञातव्य है, मनन करने योग्य है, श्रद्धा संचयका अनुयायी है । दूसरा इन्द्रियसंयम, इच्छा- करने योग्य है । इमको जाननेसे सर्वका जाननेनिरोध और त्यागका हामी है। पहला अनात्म, वाला, सर्वज्ञ हो जाता है * । इस प्रकारका बोध बाह्य, स्थूल पदार्थोंका पाहक है । दूसरा स्वाधीन, ही. जो समस्त मत्यांशोंका, ममस्ततत्त्वोंका, उनके अक्षय, सर्वप्राप्य सूक्ष्म-दशाका अन्वेषक है । पहला पारस्परिक सम्बन्धों और अनुग्रहका युगपत् जानने जन्ममरणाच्छादित नाम-रूप-कर्मवाले संसारकी वाला है, जैन परिभाषामें 'केवलज्ञान' कहलाता जननी और धात्री है। दूसरा इस संमारका उच्छे- है। यह बोध, लोक-अनुभावित सामान्य-विशेप, दक और अन्तकर है । जीवनके मब मार्ग इन ही एक-अनेक, नित्य-अनित्य, भेद्य-अभेद्य, तन-अतत दो मूल मार्गोंके अवान्तरभेद हैं। : Sir Oliver Lodge. Ether and Reality P. 19. सत्य-सम्बन्धी प्राचार और विचारमें जो तदात्मानमेव वेदहं ब्रह्मास्मीति तस्मात् तत्सर्व सर्व और विभिन्नता दिखाई देती है, वह बहुरूपा- अभवत्। -शत० प्रा० १ ४ ३-२-२१, त्मक सत्यका ही परिणाम है। * (अ) पास्मा वा अरे दष्टम्यःश्रोतम्यो मन्तव्यो निदिसत्य अनेक सत्यांशोंकी व्यवस्थात्मक सत्ता है। ___ भ्यासितव्यः । मैत्रेय्यात्मनो वा भरे दर्शनेन, श्रव खेन, मस्या, विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् । यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि एक बातको निश्चित -वृहदा उपनिषद् २-४.५, रूपसे जानने के लिये हमें कितनी ही और बातोंको (मा) एवं हि जीवरायो णादम्वो सहय सहहेन्यो। * (अ) कोपनिषद् २-1 (भा) मनुस्मृतिः १२ अणुचरिदन्यो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण । ३५, (१) चंगुत्तरनिकाय ८-२-१३ -समयसार, 1-1८
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy