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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्सात्मक है आदि समस्त प्रतिद्वन्दोंकी बनी हुई सुव्यवस्थित जितना जितना बोध बढ़ता जाता है, उतना उतना सत्ताकायुगपन् बोध होने के कारण उपर्युक समस्त ही ज्ञातव्यविषयका अज्ञात अन्तर्हित क्षेत्र और विरोधाभासों परिमाणों (?), विकल्पों, त्रुटियों अधिक गहरा और विस्तीर्ण होता चला जाता है। और अपूर्णतामोंसे रहित है। यह अद्वितीय और ऐसी स्थिति में विचारकको,महान तत्त्ववेता सुकृतीश विलक्षण बोध है । वास्तवमें जो सम्पूर्ण सत्यको के शब्दों में, वस्तुकी असीम-अथाह अनन्तता और जानता है वही सम्पूर्णतया सत्यांशको जानता है। अपनी बुद्धिकी अल्पज्ञताका अनुभव होने लगता और जो सम्पूर्णतया सत्यांशको जानता है वही है । उसे प्रतीत होता है कि वस्तुतत्व न वचनोंसे मम्पूर्ण मत्यको जानता है। जो सम्पूर्णसत्यको मिल सकता है, न बद्धिसे प्राप्त हो सकता है और नहीं जानता वह पूर्णतया मत्यांशको भी नहीं न शास्त्रका पाठ करनेमे पाया जा सकता है। जानता *। इसलिये औपनिषदिक शब्दोंमें कहा जा सकता है मन्य अल्पज्ञोंद्वारा पग नहीं जाना जा सकता कि जो यह कहता है कि मैं बहुत जानता हूँ वह जीवन और जगतकी रचना और व्यवस्था, कुछ नहीं जानता और जो यह कहता है कि मैं जीवनके लक्ष्य और मार्ग, लोकके उपादान कारण- कुछ नहीं जानता वह बहुत कुछ जानता है ।। भूत द्रव्योंके स्वरूप और शक्तियोंके सम्बन्धमें जैन परिभाषामें विचारकके इस दुःखमय यद्यपि तत्त्वज्ञाने बहुत कुछ अनुभव किया है- अनुभवको कि इतना वस्तु सम्बन्धी कथन सुनने, बहुत कुछ भाषाद्वारा उसका निर्वाचन भी किया शास्त्र पढ़ने, मनन करने और विचारने पर भी है-यह मब कुछ होने पर भी यह नहीं कहा जा उसको वस्तुका सम्पूर्ण ज्ञान न हो पाया और वस्तु मकता कि किसी भी प्रस्तुत विषय-सम्बन्धी जो ज्ञान अभी बहुत दूर है, 'अज्ञानपरिषह' से प्रकट कुछ अनुभव होना था सो हो चुका और जो कुछ कहने योग्य था वह कहा जा चका। अज्ञानवाद और संशयवादकी उत्पत्ति के कारण ___ वस्तु इन समम्न अनुभवों और निर्वाचनोंमे भी उपयुक्त भाव हैं। प्रदर्शित होने के बावजूद भी इनसे बहुत ज्यादा है। इस अनुभवके माथ ही विचारकके हृदयमें वह तो अनन्त है-वह काल क्षेत्र परिमित इन्द्रियः ऐसी आशंका पैदा होने लगती है कि क्या मत्यका बोध, अभिप्राय-परिमित बुद्धि और अवयवमयी जड शब्दोंमे नहीं ढका जा सकता। + नापमारमा प्रवचनेन सम्योग मेधवा माना जिज्ञासुत्रोंका अनुभव इम बातका साक्षी है श्रुतेन । कठोयानिपत २-२२ कि जितना जितना गहरा अध्ययन किया जाता है, यस्यामतं तम्यमतं, मतं यम्य न वेदसः। अविज्ञातं बिजानता, विज्ञानमविजानताम् । + (म) नत्वार्यसूत्र १२१ (मा)गोम्मटसार जीवकार, १६ (१) मावापपद्धति । -गोपनिषद् २-३, * प्रवचनसार १-४८, * तत्वार्थसूत्र .., । उत्तराध्ययमसूत्र २-२-४५, किया
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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