SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ वास्तविक स्वरूप ज्ञानगम्य है भी। उसकी बुद्धि समान एकान्तवाद हैं, एक विशेष प्रकारकके अनु. सन्दिग्धबाद और अज्ञानवादसे अनुरक्षित होजाती भवकी उपज हैं। है। वह ऋग्वेद १०-१२६ सूक्तके निर्माता ऋषि इस अनुभवका आभास विचारकको उस समय परमेष्ठीकी तरह सोचने लगता है कि "कौन पुरुष होता है जब वह व्यवहार्य सत्यांश बोधके समान ऐसा है जो जानता है कि सृष्टि क्यों बनी और ही विराट सत्यका वा सूक्ष्म सत्यका बोध भी इ. कहाँसे बनी और इसका क्या आधार है। मुमकिन न्द्रियज्ञान, बुद्धि और शास्त्राध्ययनके द्वारा हासिल है कि विद्वान लोग इस रहस्यको जानते हों। परन्तु करनेकी कोशिश करता है । इस प्रयत्नमें असफल यह तत्त्व विद्वान लोग कैसे बतला सकते हैं । यह रहने के कारण वह धारणा करता है कि सत्यरहस्य यदि कोई जानता होगा तो वही जानता होगा सर्वथा अज्ञेय है। जो परमव्योममें रहनेवाला अध्यक्ष है । पर्णसत्य केवलज्ञानका विषय है ___ वह पारस देशके सुप्रसिद्ध कवि, ज्योतिषज्ञ परन्तु वास्तवमें सत्य सर्वथा अज्ञेय नहीं है। और तत्त्वज्ञ उमरखय्यामकी तरह निराशासे सत्य अनेक धर्माकी अनेक सत्यांशोंकी, अनेक भरकर कहने लगता है। तत्त्वोंकी व्यवस्थात्मक मत्ता है। उनमेंसे कुछ भूमण्डलके मध्यभागसे उठकर मैं ऊपर आया। सत्यांश जो लौकिक जीवनके लिये व्यवहाय हैं सातों द्वार पार कर ऊँचा शनिका सिंहासन पाया ॥ और जिन्हें जानने के लिये प्राणधारियोंने अपनेको कितनी ही उलझने मार्ग में सुलझा डाली मैंने किन्तु। समर्थ बनाया है, इन्द्रियज्ञान के विषय हैं, निरीक्षण मनुज-मृत्युकी और नियतिकी खुलीन प्रन्थिमयीमाया३१ और प्रयोगों (Experiments) द्वारा साध्य हैं । यहाँ 'कहाँसे क्यों न जानकर परवश आना पड़ता है। कुछ बद्धि और तर्कसे अनुभव्य है, कुछ श्रुतिके वाहित विवश वारि-सा निजको नित्य बहाना पड़ता है। आश्रित हैं, कुछ शब्द-द्वारा कथनीय हैं और लिपिकहाँ चले?फिर कुछन जानकर इच्छाहो,कि अनिच्छा हो बद्ध होने योग्य है। परन्तु पूर्णसत्य इन इन्द्रियपरपटपर सरपट समीर-सा हमको जाना पड़ता है । ग्राह्य, बद्धिगम्य और शब्दगोचर मत्यांशोंसे बहुत तत्त्वज्ञोंके इस प्रकारके अनुभव ही दर्शन- ज्यादा है। वह इतना गहन और गम्भीर है-बहुशास्त्रोंके सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद सिद्धान्तोंके लता. बहरूपता और प्रतिद्वन्दोंसे ऐसा भरपूर है कारण हुए हैं। तो क्या सन्दिग्धवाद और अज्ञान है कि उसे हम अल्पज्ञजन अपने व्यवहत साधनोंबाद सर्वथा ठीक है? नहीं: सन्दिग्धवाद और अज्ञान- द्वाग-इन्द्रिय निरीक्षण, प्रयोग, तक, शब्द आदि बाद भी सत्यसम्बन्धी उपर्युक्त अनेक धारणाओंके द्वारा जान ही नहीं सकते ! इसीलिये वैज्ञानिकों के बीनरदेव शास्त्री-ग्वेदालोचन,संवत् ११५, समस्त परिश्रम जो इन्होंने सत्य रहस्यका उद्घाटन पृ० १०१ २०५ करनेके लिये आज तक किये हैं, निष्फल रहे हैं। स्वाइपात उमरवण्याम-अनुवादक श्री मैथिली- सत्य आज भी अभेद्य व्यूहके समान अपराजित शरव गुप्त, ११ खड़ा हुआ है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy