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अनेकान्त
मार्गशीर्ष, वीर निर्वाय सं०२४६६
अत्यन्त पापोदयकी अपेक्षामे है और केवल मनुष्योंके त्रिक देव भी यथाशक्ति धर्म-पाधन करते हैं तथा सम्यक्त माननेकी वस्तु है, मनुष्य यह अनुभव करें कि भी ग्रहण कर लेते हैं। यह सब उनके धर्माचरण ही नारकी हमसे नीचे हैं ऐसा मानना चाहिये। है और इसलिये उनमें उच्च गोत्र भो होना हो चाहिये ।
देवोंको ऊँच गोत्र वाले मानना और नियंचों व जैनशास्त्रों में पद पद पर यह कथन मिलता है कि नारकियोंको नीच गोत्र पाने मानना मनुव्यों के मानने शास्त्रों में जो भी बात कहीं है जो भा विवेचन किया की वस्तु इसलिये है कि देवोंको अपने पे उंचे व अपनेको गया है, वह निरपेक्ष न कहा जाकर किसी न किसी देवोंमे नीचे नया तिथंचों, नारकियोंको अपनेये नीचे व अपेक्षाय ही कहा हुआ होता है, भले ही वहाँ उस अपनेको तियच नारकियोंमे उँचे माननेमे जो तजन्य अपेक्षाका स्पष्टीकरण या प्रकटीकरण न किया गग हो। रसानुभव होता है वह मनुस्यों को ही होता है; क्योंकि जहाँ जो बान कही गई हो उसे निरपेक्ष न समझ कर मनुष्य ही ऐसा मानते हैं। और इमलिये भी उपर्युक्त जिस अपेक्षा कही गई हो उमी अपेक्षा समझने पर प्रकारका मानना मनुष्योंके माननेकी वस्तु है। मनुष्यों ठीक समझी गई ऐसा कहा जा सकता है, बल्कि निरद्वारा जो देव ऊँचे व तियच नारकी नीचे माने जाने हैं पेक्ष कही हुई व समझी हुई बात मिथ्या नक कह दी उसका रसानुभव देव तिर्यच नारकियोंको कुछ भी नहीं जाती है। जब यह बात है तब मेरी कही हुई यह होता ।
बात कि विशिष्ट पुण्योदयकी अपेक्षा मारे देवोंमें उच्च ___ सर्व प्रकारके देव व भोग भूमियाँ जाव अणुमात्र गोत्रका उदय व विशिष्ट पापोदयको अपेक्षा तिर्यच व भी चारित्र धारण नहीं कर सकते, इसका भाव यह नारकियों में नीच गोत्रका उदय माना है, क्यों नहीं मानना चाहिये कि वे संप्राप्त भोगांका त्याग करके और ठीक मानी जानी चाहिये ? और यदि मेरी उपर्युक्त बात जो कुछ भी चारित्र धर्माचरण पालने के अभ्यासी हैं ठीक है तो गोम्मटसार कर्मकाण्डकी १३वी गाथामें ऊँचे उसमे बढ़ नहीं सकते अणुमात्र चारित्र धारण नहीं कर व नोचे आचरणके आधार पर वर्णित ऊँच नीचगोत्रके सकने से यह प्रयोजन न समझना चाहिये कि उनमें स्वरूपकी संगनि सारे संसारके प्राणियों पर ठीक बै. चारित्रका, धर्माचरणोंका अभाव हा है। भोगभूमियां जाती है, और यहाँ ११वीं गाथासे 'प्रकरण भी, मारे जीव अत्यन्त मंद कषाय होते हैं और इसलिये देव ही संमारके प्राणियोंका भारहा है, इमलिये भी १३वीं उत्पन्न होते हैं तथा वे सम्यक्त भी ग्रहण करते हैं, धर्म गाथामें वणित ऊँच-नीच गोत्रका स्वरूप देव मनुष्य चर्चादि भी करते हैं और इसी तरह सर्वार्थसिद्धि प्रादि तिर्यच व नारकी रूप सारे संसारके जीवोंके लिये ही अनुत्तर विमानोंके देव एक भवावतारो व दो भवावतारी वर्णित है। और वह इस तरह पर घटित होता है-- होते हैं तथा सदैव धर्म चर्चा व पूजा प्रभावनादि धर्मा- कल्पवामी, भवनवासी, म्यंतर व ज्योतिषी देवोंके चरण किया करते हैं तथा पंचम स्वर्गके देव ब्रह्मचारी धर्माचरणों के विषयमें तो पहले लिखा ही जा चुका है देव अषि होते हैं। सौधर्मादि स्वर्गाके देव भी भगवान्के कि धर्माचरण उनमें पाये जाते हैं और पापाचरणों कल्याणकादिमें व समवसरणादिमे भाते हैं तथा पूजा तथा उनमें ऊँचे नीचे और छोटे-बड़े भेद-प्रभेदोंके विषयप्रभावनाधर्म चर्चावि किया करते हैं। इसी तरह भवन में पूज्य वकाल बाब सूरजमानजी साहयने अपने बेलामें