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________________ अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर- निवसं०२४॥ ममिके मादिके मनुष्योंमें गोत्रका प्रभाव स्वयमेव बनेः--१ कुम्भकार, २ लोहार, ३ चित्रकार, ४ सिद्ध होता है; क्योंकि इनके पाचरण इनके पूर्व- वन बुननेवाले, ५ नापित अर्थात् नाई। ऋषभदेवजोंसे सर्वथा मिन और विरुद्ध थे । इसको हम ने ही विवाहविधि चलाई और सगे बहिन भाईमें नीचे स्पष्ट करते हैं स्त्री-भर्तारका सम्बन्ध होना बन्द किया । ___ भोग भूमिया मनुष्य न खेती करते थे, न इस कथनकं मुभाफिक जिम जिस भोगमकान बनाते थे, और न भोजन-वस्तु पकाते थे; भूमियाने अपनी सहोदराको छोड़कर दूमरी स्त्रीसे वे अपनी सब आवश्यकतायें कल्पवृक्षोंसे पूरी विवाह किया, अथवा ऋषभदेवजीकी शिक्षा पाकर करते थे। इसलिये उनमें असि, मसि,कृषि, बाणि- कुम्हार, लोहार आदिके कामको किया, उसका ज्य, सेवा और शिल्पके कर्म व्यापार भी नहीं थे। आचरण उसके माता पिताके आचरणोंसे बिलकुल उनको मापसमें किसीसे कुछ सरोकार नहीं था, ही विपरीत और निराला था; अर्थात उसका आअपने अपने युगलके साथ अपनी कल्पतरू-बाटिका- चरण अपने कुल की परिपाटीके अनुसार नहीं था, में सुखभोग करते थे । अतएव न कोई उनका इसलिये वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किमी समाज था और न कोई सामाजिक बन्धन । उनमें अन्य ही कर्मोदयका फल था। अतएव कर्मविवाह-संस्कार नहीं होता था; एक ही माताके भूमिकी आदिमें जो मनुष्योंके आचरण थे उनकी उदरसे नर-मादाका युगल उत्पन्न होता था, जब 'गोत्र' संज्ञा नहीं कही जा सकती और उस ममयके यौवनवन्त होते थे तब दोनों बहिन और भाई सब लोग गोत्रकर्मोदय रहित थे । पाठ कम्मोंकी स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध कर लेते थे । युगल पैदा होते जगह उनके सात ही का उदय था । गोत्रकर्मका ही उनके माता-पिताका देहान्त हो जाता था। इस उदय उनकी सन्तानके माना जायगा जिन्होंने प्रकार युगल मनुष्योंकी समान जीवन-स्थिति उस अपने आचरण माता पितासे प्राप्त किये और समव तक जारी रही जब तक कि कल्पवृक्षोंकी उन्हींका पालन किया । यदि उस समय किसी नाई कमी न हुई । तीसरे आरेके अस्त्रीरमे कल्पवृक्षोंकी के लड़कने खेतीका काम किया और नापितके न्यूनतासे लोगोंने अपने अपने वृक्षोंका ममत्व कार्यको न सीखा तो उसका भी आचरण 'सन्तानक्रकलिया और कई युगल वृक्षोंके लिये आपसमें मागत' न होनेसे गोत्रसंज्ञक न होगा, उसके भी क्लेश करने लगे। तत्पश्चात् परस्परके झगड़े गोत्रकाभाव ही कहा जायगा। ऐसे सन्ताननिपटानके लिये उन युगलियोंने अपनेमसे एक कर्मरहित आचरणोंके लिये कर्मतत्त्व-ज्ञानमें युगलको न्यायाधीश बनाया जो पहिला कुलकर कौनसा विशेष कर्म है सो ज्ञानी पाठक खुद हुआ और उसीके वंशज आगेको न्यायाधीश तथा विचारें; अष्टकमके उपरान्त तो कोई कर्मनहीं दण्डनीतिविधायक होते रहे। इन्हीं कुलकरोंको कहा गया और इन मूलोत्तर प्रकृतियोंको इनके मन्तान श्रीऋषभदेव तीर्थकर हुए जिन्होंने पट्कर्म- लक्षणानुसार उक्त सन्तान-क्रम रहित आचरणोंके की शिक्षा दी; उनके उपदेशसे प्रथम पाँच कारीगर कारण कह सकते नहीं।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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