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________________ वर्ष , रिव] गोत्र विचार 'सन्तानक्रमागत' पद पर एक शंका यह और नरणी हैं और अमुक अमुक नीचाचरणी। तदुहोती है कि जिस भोग-भूमियोंकी सन्तानने ऋषभ- परान्त युगान्तरों तक उन कुलोंमें निरन्तर एक ही देवजी की शिक्षानुमार अपने पूर्वजोंके आचरणको प्रकारका आचरण रहे इसकी गांरटी क्या ? किसी छोड़कर नवीन आचरण ग्रहण कर लिये, उसके भी कुलमें एक ही तरहका आचरण निरन्तर बना पुत्रका आचरण पिताके अनुकूल होने पर 'सन्तान रहेगा ऐसा मानना प्रकृति और कर्म सिद्धान्तके कमागत' कहा जायगा कि नहीं; अर्थात् एक ही प्रतिकूल है, प्रत्यक्षसे बाध्य है। किसी जीवके पीढ़ीके आचरणको 'सन्तानक्रमागत' कहेंगे या आचरण उसके पिता या पूर्वजोंके अनुसार श्रवनहीं; मूलतः प्रश्न यह है कि कितनी पीठीका पाच- श्यमेव ही हों, ऐमा मानना एकान्त हठ है। रण सन्तान क्रमागत कहा जा सकता है ? इसका यदि आचार्योंका यह अभिप्राय हो कि उक्त ब्योरा किसी ग्रन्थों में देखने में नहीं आया। हिंसादि पाचरणों में प्रवृत्ति और निवृत्ति जीविका अब जरा आचरणकी उच्चता नीचता पर के षट्कर्म त था पेशोंसे नियोजित है; कई पेशे विचार कीजिये । 'आचरण' शब्दसे असलियतमें और कर्म तो ऐसे हैं जिनके करनेवाले नीचाचरणी प्राचार्योका क्या क्या अभिप्राय है सो साफ साफ नहीं होते और कोई ऐम हैं जिनको करनेसे जीव कहीं नहीं खोला गया। यदि 'पाचरण' शब्दसे नीचाचरणी हो ही जाता है अथवा नीचाचरणी हिमा, झूठ, चोरी, सप्त व्यसनादिमें प्रवृत्ति ही उस पेशेको करता है उचाचरणी नहीं । प्रयोजन अथवा निवृत्तिसे मतलब है तब तो गोत्रके उक्त यह हुआ कि कई पैशांके साथ उच्चाचरणका लक्षणानुसार ऐसा मानना पड़ेगा कि दो तरहकं अविनाभावी सम्बन्ध है और कतिपयके साथ कुल यानी वंशक्रम होते हैं, एक वे जिनमें हिंसादि नीचाचरणका । इममें कई अनिवार्य शंकाएँ पैदा पाचरण वंश परम्परास नियनरूपसे कभी हुए होतीहैं । चतुगतिक जीवोंकी अपेक्षा तो यह सर्वथा ही नहीं, अतएव उनमें उत्पन्न हुए जीव उच्च गात्री अमम्भव है। मनुष्योंकी अपेक्षा लीजियेकहलाते हैं; दूसरे वे कुल जिनमें हिमादि आचरण (क) भाग-भूमियोंके कोई पेशे वा जीविका कर्म नियत रूपसे परम्परासे होते आये हैं, इमलिये नहीं थे अतः वे सब नीचाचरणी तथा गोत्रकर्म उनमे जन्म लेने वाले जीव नीच गोत्री होते हैं। रहित कहे जायेंगे । यह प्रचलित गोत्रोदय-मतसे ___ चतुर्गतिके जीवोंका विचार न करें तो ऐसे उच्चा- विरुद्ध पड़ता है । चरणी नीचाचरणी नियत कुलका कर्मभूमिके श्रा- (ब) पट्कर्म और पेशांका उपदेश आदि दिम सर्वथा अभाव था । भोग-मिया मेंस तो ऐसे तीर्थकरने दिया था और उन्होंने ही कारीगरी नथा नियत कुल थे ही नहीं; अतः नियतकुलोंक प्रभाव शिल्पके कार्य सिग्वाय थे, अन्नादिका अग्निमें में युगादिमें सब मनुष्य गोत्र तथा गोत्र कर्म रहित पकाना भी उन्होंने ही मिखाया । वे अवधिज्ञानी थ । जैन ग्रन्थों में इस बातका ब्योग कहीं भी नहीं और मोक्षमार्गके श्रादिविधाता थे; यदि उचाचरणी है कि अमुक अमुक कुल तो हमेशाके लिये उच्चा- और नीचाचरणी दोप्रकारके पेशे वास्तबमें होते तो
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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