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अनेकान्स
वे नीचाचरणके पेशोंको कभी नहीं मिखाते और न किसीको उनके व्यापार का आदेश करते, जान बूझकर वे जीवोंको पापमें न डालते, प्रत्युत मत्रकी ही उच्चाचरणी पेशोंकी शिक्षा देते । जीविका कर्म और पेशों के साथ उच्चाचरण और नीचाचरण के सम्बन्धी योजनासे भगवान् ऋषभदेव पर बड़ा भारी दूषण आता है । इससे यही कहना पड़ेगा कि या तो उच्चाचरण और नीचाचरणका सम्बन्ध पेशों में है नहीं, और यदि है तो षट्कर्म और भिन्न भिन्न शिल्पके कार्योंकी शिक्षा ऋषभ देव जी ने नहीं दी किन्तु प्रकृतिका विकामके नियमानुसार शनैः शनैः जनताकी जरूरतोंस कभी कुछ और कभी कुछ ऐसे नये नये त्याविष्कार होते रहे जैस आजकल होते हैं । ऋपमदेवजीका चलाया हुआ कोई भी पेगा नीचावरणका नहीं हो सकता, तदनुसार कुम्हार जुलाहा, लोहार, नाई सब उच्च गोत्री हैं, पेशे की अपेक्षा ये लोग नीचाचरणी नहीं अथवा ये कहिये कि कुम्हार आदिक पेशे ऋषभदेवजी ने नोचाचरण या नीचाचरीके कारण नहीं समझे और न ऐसा किसीको प्रकट किया । तदनुसार जीविका कर्मकी अपेक्षामे ऋषभ देवीकी दृष्टि न कोई उच्च गोत्र था, न नीच पाठक विचार करें कि ऐसी अवस्थामं च और नीच श्रचरांक नियत कुलोंका सर्वथा अभाव है कि नही: फिर गोत्र और गोत्रकमकी क्या बात रही ?
(ग) जैनधर्ममं प्रथमानुयोग के अनुसार जिन कुलोंगे क्षात्रकर्म होता है वे उच्चगोत्र कहे जायगे । इसका यह अभिप्राय होता है कि जिन कुलोंमे परिपाटी क्षात्र कर्म होता है उनमें उत्पन्न
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २०६६
होने वाले जीवोंके आचरण नियमतः उच्च ही होन चाहियें, तभी आचरण और जीविका - कर्म में वि नाभावी सम्बन्ध माना जा सकता है । परन्तु कथा पुराणोंमें इसके विपरीत हजारों उदाहरण मिलते हैं । रावण क्षत्रियकुलोत्पन्न तीन खण्डका राजा था, उसने सीता परस्त्रीका हरण किया जिसके कारण लाखों जीवोंका रणमें खून हुआ । युधिष्ठि रादि पाण्डव और कौरव क्षत्रियोद्भव थे, उन्होंने जुआ खेला और व्यसनको यहां तक निभाया कि द्रौपदी स्त्रीको भी दावमें लगाकर हार बैठे। पाठक, जरा विचारिये कि क्या ये श्राचरण उच्च थे । हमने ये उदाहरण दिग्दर्शनमात्रको लिख दिये है, वरना (अन्यथा ) पुराणों में अगरणत. मिसालें (उदाहरण) मौजूद हैं जिनसे विदित होगा कि क्षत्रियोंमें ही अधिकतर नीचाचरणी हुये हैं। ऐसी अवस्था में पेशोकं साथ आचरणोंका स्थिर सम्बन्ध कैम माना जा सकता है ?
उपर्युक्त बातों से यह माफ होजाता है कि लोक में न तो ऐसे कुल ही है जिनके लिये यह कहा जा सके कि उनमें उच्च या नीचाचरण हमेशाक लिये परिपाटी में चला आता है और न जीविका कर्म या पेशोंके कुलोसे आचरणों का अविनाभावी सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
अतः गोम्मटसारमें जो गोत्रका लक्षण है और जैन सिद्धान्तियोंने गोत्रकम्र्मोदय-व्यवस्था जैसी मानी है, ये सब प्रकृतिविकासके विरुद्ध हैं; यं सार्वकालिक और चतुर्गतिके जीवोंपर दृष्टि रखकर नहीं बनाये गये, किन्तु भारतवासियोंकं व्यवहार और खयालोंके अनुसार इनको कल्पना हुई है । अमुक प्रकार के कुल जैसे ब्राह्मणादि, नियमसे