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________________ वर्ष ३. किरण २] वीरशासनांक पर कुछ सम्मतियां उच्चारणी ही होते आये हैं और होते रहेंगे, इनमें कर्म और गोत्रका सद्भाव नहीं और है तो वह उत्पन्न हुए जीवोंको उच्च ही मानना एवं इनसे क्या है, उसका लक्षण इन प्रचलित शास्त्र मतोंकी इतर कुल जैसे कुंभकार आदि शिल्पकार नापित व्यवहार-रूढ़िसे नहीं मिल सकता। टीकाकार प्रभति सेवा-कर्मी नीचाचरणी हैं, इनको सदा आचार्य सब यह लिखते हैं कि "जिसके उदयसे सर्वदाके लिये नीचही मानना, नीचता उच्चता लोक पूज्य इक्ष्वाकु आदि उच्च कुलोंमें जन्म हो, जन्मसे है, गुण, स्वभावसे नहीं; एक कुल जाति उसे 'उच्च गोत्र कर्म' कहते हैं, और जिसके उदय का कर्म दूसरे कुल-जातिवाला न करे, इत्यादि से निन्द्य दरिद्री अप्रसिद्ध दुःखोंसे आकुनित धारणायें भारतमें ही हजारों वर्षोंसे अचलरूपसे चाण्डाल आदिके कुलमें जन्म हो, उसे नीच गोत्र चली आरही हैं। इन्हीं वंश-परम्परागत धारणाओं कर्म' कहते हैं। पाठक देखलें कि ये लक्षण चतऔर व्यवहारोंके मुताबिक जैनाचार्योंने गोत्र- गतिके जीवों में कैसे व्यापक हो सकते हैं ? कर्मका लक्षण रचा है। परन्तु, पाठकजन, गोत्र कर्म अमलियतमें है गोम्मटसारके अलावा सर्वार्थमिद्धि, राज- कुछ जरूर, उमके अस्तित्वसे हम इन्कार नहीं वार्तिक आदि तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओं में जो उच्च कर सकते, चाहे लोक व्यवहारी जैनाचार्यों के और नीच गोत्रका लक्षण लिखा है उससे भी यही निर्दिष्ट लक्षणमें हम उसका यथावत् स्वरूप नहीं निस्सन्देह प्रतीत होता है कि गोत्र-कर्मको योजना पाते और अनेक अनिवार्य शंकाएं होती हैं तथापि जैन विज्ञोंने कर्म-सिद्धांतमें भारतीय मनुष्यों ही के प्रकृति-विकाममें उसकी खोज करनेसे हम गोत्र विचारसे की है, चतुर्गतिके जीवोंमें या तो गोत्र- और गोत्र कर्मके शुद्ध लक्षण तक पहुँच सकते हैं। वीरशासनांक पर कुछ सम्मतियां (१) प्रोफेसर ए० एन० उपाध्याय, एम. ए. डी. मुझे इममें जगभी सन्देह नहीं कि श्रापका 'अनेकान्त' लिट कोल्हापुर हिंदी पत्रों में प्रधान स्थान रखता है। यह सुनिश्चित् है "I am in due receipt of the (वीर- कि जैन साहित्यका विद्यार्थी इसके पुष्टोंमें बहुतमी बहुशासन)Number of the 'Anekant'. I feel मूल्य मामग्रीको मालूम करे और इसे हमेशा अपने पास no doubt that your 'Anekant'occupies are a greater for the a prominent position among Hindi (२) न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्री, Journals. A student of Jaina Lite- न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशीrature is sure to find a good deal of “विशेषाङ्क देखा, हृदय प्रसन्न होगया । लेखोका valuable material in its pages; and चयन श्रादि बहुत सुन्दर हुआ है। बा• सूरजभानजी he has to keep it always at his elbow तो सचमुच प्रचंड रूदि विघातक युवक है। वे सदियों for repeated reference." के मर्मस्थानोंको खोज २ उन पर ही प्रहार करते हैं। अर्थात्-अनेकान्त' का 'वीर शासनाक' मिला। मैं पत्रकी समुन्नतिकी बराबर शुभ भावनाएँ भाता हूँ।"
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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