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अनेकान्त
[वर्ष ३, किरण १
सन्देह मालूम नहीं होता । 'खण्ड' शब्द लेखककी "तव्वदिरित्तठाणाणि असंखेज्जगुणाणि पडि. किसी असावधानीका परिणाम है । हो सकता है कि यह वादुप्पादठाणाणि मोतूण संससम्वट्ठाणाणं उस लेखक के द्वारा ही बादमें बढ़ाया गयाहो जिसने उक्त गहणादो।" बायके बाद अधिकारकी समाप्तिका चिन्ह होते हुए भी इस वाक्य के अनन्तर ही बिना किसी सम्बन्धके नीचे लिखे वाक्योंको प्रक्षिप्त किया है-
ये वाक्य दिये हुए हैं। "णमो णाणाराहणाए णमो दमणाराहणाए "श्रीश्रुतिकीर्तित्रविद्यदेवस्थिरंजीयानो ॥१०॥ णमो चरित्ताराहणाए णमो तवाराहणाए । णमो नमो वीतरागाय शान्तये" भरहताणं णमो सिद्धाणं णमो पाइरियाणं णमो ऐमी हालत में उक्त 'खंड' शन्द निश्चितरूपसे प्रक्षिप्त वज्ञायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं'। णमो भय- अथवा लेखककी किसी भूलका परिणाम है। यदि बदो महदिमहावीरवड्ढमाणबुद्धिरिसिस्म णमो वीरसेनाचार्यको 'वेदना' अधिकारके साथ ही 'वेदनाभयवदो गोयमसामिस्स० नमः सकलविमलकेवल- खंड' का समाप्त करना अभाट होता तो वे उसके बाद ज्ञानावमासिने नमो वीतरागाय महात्मने नमो ही क्रमप्राप्त वर्गणाखंडका स्पष्ट रूप से प्रारंभ करतेबर्द्धमानभट्टारकाय । वेदनाखण्डसमाप्तम् ।" फासाणियोगद्वारका प्रारंभ कर के उसकी टाका के मंगला
ये वाक्य मूलगन्ध अथवा उसकी टीका के साथ चरण में 'फासणिो परूवेमो' ऐसा न लिखते । कोई खास सम्बन्ध रखते हुए मालूम नहीं होते-वैसे मून 'फास' अनुयोगद्वार के साथ कोई मंगलाचरण न ही किसी पहले लेखक-द्वारा अधिकार-समामि के अन्तमें होनेसे उसके साथ वर्गणाखंडका प्रारम्भ नहीं किया दिए हुए जान पड़ते हैं । और भी अनेक स्थानोंपर इस जा सकता; क्योंकि वर्गणाखंडके प्रारंभमें भूतबलि प्रकार के वाम्य पाये जाते हैं, जो या तो मूलप्रतिके प्राचार्यने मंगलाचरण किया है, यह बात श्रीवीरसेनाहाशिये पर नोट किये हुए थे अथवा अधिकार-समाप्ति चार्यके शब्दोंसे ही ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है । अतः के नीचे छटे हए खाली स्थान पर बादको किसी के द्वारा उक्त समाप्तिसक वास्यमें 'खंड' शन्दके प्रयोग मात्रसे नोट किये हुए थे; और इस तरह कापी करते समय सोनीजीके तथा उन्हींके सदृश दूसरे विद्वानोंके कथनको अन्धमें प्रक्षिम हो गये हैं। वीरसेनाचार्यकी अपने अधि. कोई पोषण नहीं मिलता। उनकी इस पहली बातमें कारों के अन्तमें ऐसे वाक्य देनेकी कोई पद्धति भी नहीं कुछ भी जान नहीं है-वह एक निर्दोष हेतुका काम पाई जाती-अधिकांश अधिकार ही नहीं किन्तु खंड तक नहीं दे सकती। ऐसे वास्पोंसे शूत्य पाये जाते हैं। और कितनेही अधि. (ख) दूसरी बात बहुत साधारण है। फासाणियोगकॉमें ऐसे वास्प प्रदिप्त हो रहे हैं जिनका पूर्वापर द्वारकी टीकाके अन्तमें एक वाक्य निम्नप्रकारसे पाया कोई भी सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। उदाहरण के लिए जाता है'जीवट्ठाण' की एक चूलिका (संभवतः ७वीं य” ८ वी) में "जदि कम्मफासे पयदं तो कम्मफासो सेसप
जो चारा-ग सिदान्तभवन की 'पवन' पति, देखो, पारा चैवसिदान्तभवन की 'ब' प्रति पर पत्र ।
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