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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि श्रुत-परिचय उक्त अनुयोगदारों के प्रसिद्ध होनेकी बात तो बड़ी ही है, 'वेयणा' नामका दूसरा अनुयोगदार है, जिसकी विचित्र है ! अभी तो यह ग्रन्थ लोकपरिचयमें भी अधिक टीका प्रारंभ करते हुए वीरसेनाचार्य ने भी, “वेयणम नहीं पाया । फिर उसके कुछ अनुयोगद्वारोंकी 'वर्गणा- हाहियारं विविहियारं परूवेमो" इस प्रतिशावास्यके ग्वंड' नामसे प्रसिद्धिकी तो बात ही दूर है। सोनीजीको द्वारा उसे विविध अधिकारोंसे युक्त 'वेयणा' नामका यह सब लिखते हुए इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि यदि महाअधिकार सूचित किया है-'वेयणाखंड' नहीं अकेला वेदना-अनुयोगद्वार ही वेदनाखंड है तो फिर लिखा है--; वही अधिकार अथवा अनुयोगद्वार अपने 'कदि' अनुयोगद्वारको कौनसे खंडमें शामिल किया अवान्तर १६ अनुयोगदारों और उनके भी फिर अवान्तर जायगा ? 'बंधसामित्तविचत्रो' नामके पूर्वखंडमें तो अधिकारों के साथ वहाँ पूरा हुआ है। 'वेयणा' के १६ उसका समावेश हो नहीं सकता--वह अपने विषय अनुयोगद्वारों में अन्तका अनुयोगद्वार 'वेयण अप्पाबहुग' और मंगलमत्रों आदिके द्वारा उससे पृथक् हो चुका है, उसीकी समाप्ति के साथ 'वेयणा' की समाप्तिकी है । इसी तरह यह भी खबर नहीं पड़ी कि यदि बंधण- वात उक्त समाप्ति सचक वाक्यमें कही गई है। 'वेयणा' अनुयोगद्वारके बंध और बन्धनीय अधिकारोंको वर्गणा- पद स्त्रीलिंग होनेसे उसके साथमें 'समत्ता' (समाप्त हुई) खंडमें शामिल किया जायगा तो शेष अधिकारके क्रिया ठीक बैठ जाती है। दोनोंके बीचमें पड़ा हुआ क्रमशः प्राप्त कथनके लिये कौनसे नये खंडकी कल्पना 'खंड' शब्द असंगत और प्रक्षिप्त जान पड़ता है । करनी होगी ? क्या उसे किसी भी खंडमें शामिल न श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी धवला टीकामें कहीं भी अकेले करके अलग ही रखना होगा? श्राशा है इन सब बातों- 'वेयणा' अनुयोगद्वारको 'वेयणाखंड' नहीं लिखा हैके विचार परसे सोनीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी। वे 'वेयणाखण्ड' अनुयोगद्वारोंके उस समूहको बतलाते अब मैं उन बातोंको भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ है जिसका प्रारम्भ 'कदि' अनुयोगदारसे होता है और जिनसे सोनीजीको भ्रम हुश्रा जान पड़ता है और जिन्हें इसीसे 'कदि' अनुयोगद्वारके शुरूमें दिये हुए उक्त ४४ वे अपने पक्षको पुष्टि हेतरूपसे प्रस्तुत करते हैं। मंगलसूत्रोंको उन्होंने 'वेदनाखण्ड' का मंगलाचरण (क) सबसे पहली बात है वेदना-अनुयोगद्वारके बतलाया है; जैसा कि उनके निम्नवाक्यमें प्रयुक्त हुए अन्तमें वेदनाखंडकी समाप्तिका लिखा जाना, जिसकी "वेयणाखण्डस्स मादीए मंगलटुं" शब्दोंसे स्पष्ट हैशब्दरचना इस प्रकार है-- “ण ताव पिबदमलमिदं महाफम्मपपडिपाहु. "एवं वेयणमप्पाबहुगाणियोगदारे समरो उस्म कवियादिचडग्रीसमणियोगावयवस्स मादीए वेयणाखंड समत्ता।" गोदमसामिण परूविदस्स भूदवलिभडारपण इस वाक्यमें "वेयणखंड समत्ता"यह पद अशुद्ध वेयणखंडस्स भादीए मंगलटुं तत्तो पाणेदूण ठवि. है-"वेयणा समता" ऐसा होना चाहिये, क्योंकि दस्स णिबद्धत्तविरोहादो।" वेयणकसीणपाहुड अथवा कम्मपयडिपाहुरके २४ अनु- ऐसी हालतमें और इससे पूर्व में गले हुए प्रकाशयोगदारोंमेंसे, जिनका अन्य उद्देश क्रमसे कथन किया की रोशनीमें उक्त 'खंड' शब्दके प्रवित होनेमें कोई
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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