SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ अनेकान्त १६ अधिकारोंका उल्लेख करके भी दो ही अधिकारोंका वर्णन किया है । और भी बहुत कुछ संक्षिप्ततासे काम लिया है, जिससे उसे वर्गणाखण्ड नहीं कहा जा सकता और न कहीं वर्गणाखण्ड लिखा ही है । इसी संक्षेप-प्ररूपण-हेतुको लेकर अन्यत्र कदि, फास, और कम्म आदि अनुयोगद्वारोंके खण्डग्रन्थ होनेका निषेध किया गया है। तब अवान्तर अनुयोगद्वारोंके भी श्रवान्तर भेदान्तर्गत इस संक्षिप्त वर्गणाप्ररूपणाको 'वर्गras' कैसे कहा जा सकता है ? ऐसी हालत में सोनीजी जैसे विद्वानोंका उक्त कथन कहाँ तक ठीक है, इसे बिज़ पाठक इतने परसे ही स्वयं समझ सकते हैं, फिर भी साधारण पाठकोंके ध्यान में यह विषय और अच्छी तरह से श्रजाय, इसलिये, मैं इसे यह और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ और यह ते रूपमें बतला देना चाहता हूँ कि 'धवला' वेदनान्त चार खराडोंकी टीका है --- पाँचवें वर्गगाखण्डकी टीका नहीं है। वेदनाखण्डकी श्रादि में दिये हुए ४४ मंगलसूत्रोंकी व्याख्या करने के बाद श्रीवीरसेनाचार्यने मंगलके 'निबद्ध' और 'अनिबद्ध' ऐसे दो भेद करके उन मंगलसूत्रोंको एक दृष्टि से निबद्ध और दूसरी दृष्टिसे निबद्ध बतलाया है और फिर उसके अनन्तर ही एक शंका-समाधान दिया है, जिसमें उक्त मंगलसूत्रों को ऊपर कहे हुए तीन खण्डों-वेदणा,बंधसामित्तविचश्रो और खुदाबंधो— का मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की गई है कि 'वर्गणाखण्ड' की श्रादिमें तथा 'महाबन्धखंड' की श्रादिमें प्रथक मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरण के बिना भूतबलि श्राचार्य ग्रन्थका प्रारम्भ ही नहीं करते हैं। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिन कदि, फास, कम्म, पडि, [बंधण] अनुयोगद्वारोंका भी यहाँ [ वर्ष ३, किरण ( एत्थ ) – इस वेदनाखण्ड में - - प्ररूपण किया गया है, उन्हें खण्डग्रन्थ-संज्ञा न देनेका कारण उनके प्रधानताका प्रभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथनसे जाना जाता है । इस कथनसे सम्बन्ध रखने वाले शंका-समाधान के दो अंश इस प्रकार हैं: “उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिरणं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधाणं आदीए मंगलकरणादो । रण च मंगलेण विणा भूदबलिभडार गंथस्स पारंभदि तस्स श्ररणाइरियत्तप्पसगादो ।" "कदि- फास कम्म-पर्याड - ( बंधण ) -योगदाराणि वि एत्थ परूविदारिण तेर्सि खंडगंथसरणमकाऊरण तिरिण चेव खंडाणि त्ति किमट्ठ उच्चदे? तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो गव्वदे ? संखेवेण परूवणादो ।" * उक्त, 'फास' आदि अनुयोगद्वारोंमें से किसीके भी शुरू में मंगलाचरण नहीं है - 'फासे त्ति', 'कम्मे त्ति' 'पयडि त्ति', 'बंधणे' त्ति' सूत्रोंके साथ ही क्रमशः मूल अनुयोगद्वारोंका प्रारम्भ किया गया है, और इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखण्ड में की गई है तथा इनमें से किसीको खण्डग्रन्थकी संज्ञा नहीं दी गई, यह बात ऊपरके शंकासमाधान से स्पष्ट है । ऐसी हालत में सोनीजीका 'वेदना' श्रनुयोगद्वारको ही 'वेदनाखण्ड' बतलाना और फास, कम्म, पयडि श्रनुयोगद्वारोंको तथा बंधा श्रनुयोगद्वारके बन्ध और बंधनीय अधिकारोंको मिलाकर 'वर्ग खण्ड' की कल्पना करना और यहाँ तक लिखना कि ये अनुयोगद्वार “वर्गणाखंडके नामसे प्रसिद्ध हैं" कितना असंगत और भ्रमपूर्ण है उसे बतलानेकी ज़रूरत नहीं रहती । 'वर्गणाखंड' के नामसे देखो, धारा-बैन सिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति पत्र ५३२
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy