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________________ २१९ . अनेकान्त [भापब, बोर विद्रसं०२४ हो गया था और जिनके परख बोए जल गया भा, वे भीपज्यमाद मुनि जयवन्त हो-अपने गुणों को कबीना वीर्य करते । विदुषां वामना म यम् ॥-- जिनका पान-सम्पत्रिलपी व्याकरण-तीर्थ विद्वज्जनान करने वाला है, वे देवनन्दी कवियोंके--मीन संदर्म रखने वालोंक-तीर्थकर हैं, उनके विपक्में और अकि सा कहा जाय ?. अचिन्त्यमहिमा देवः सोभिकको सिविता। सदाब येन सिरपति साधुत्वं प्रविम्भिवाचा जिनके द्वारा--जिनके व्याकरणशास्त्रको लेकर--शब्द भले प्रकार सिद्ध होते हैं, वेदिवनन्दी अचिन्त्य महिमायुक्त देव है और अपना ति चाने वालोंके.दारा सदा बन्दना किये जाने के योग्य हैं। ....पूज्यपाद: सद्रामा पुनातु मम . व्याकरणार्णवो येन तीनों विस्तीर्णसद्गुणः ।। -पाशवपुराणे, रामचन्द्रः जो पज्योंके द्वाग भी सदा पूज्यपाद है, व्याकरण-समुद्रको तिर गये हैं और विस्तृत सद्गुणों के धारक हैं, वे श्री पूज्यपाद प्राचार्य मुझे सदा पवित्र करो--नित्य ही हृदयमें स्थित होकर पापोंसे मेरी रक्षा करो। अपा कुवन्ति यवतः काय-वाक्-चिचसंभवम् । कलंकमगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥-ज्ञानालवे, श्रीरामचन्द्र जिनके वनन प्राणियोंके काय, वाक्य और मनः सम्बंधी दोपोंको दूर कर देते है--अर्थात् जिनके वैद्यक-शाम के सम्यक् प्रयोगसे शरीरके, व्याकरणशास्त्रसे वचनके और समाधिशास्त्रसे मनके विकार दूर हो जाते है--उन श्रीदेवनन्दी श्राचार्यको नमस्कार है। न्यासं जैनेन्द्र संझं सकलबुधनुतं पणिनीयस्य भूयोन्यासं शब्दावतारं मनुजतविहितं वैद्यशास्त्र च करवा । यस्तत्त्वार्थस्य टीको व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपाद स्वामी भूपालवन्धः स्वपरहितवचः पूर्ण इम्बोधवृत्तः ॥-नगरताल्लक शि• लेखनं० ॥ ___ जिन्होंने सकल बुधजनोंसे स्तुत 'जैनेन्द्र' नामका न्यास (व्याकरण) बनाया, पुनः पाणिनीय-व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामका न्यास लिखा तथा मनुज-समाज के लिये हितरूप वैद्यक शास्त्र की रचना की और इन भबके बाद नत्यार्थ सूत्रको टीका ( सर्वार्थसिद्धि) का निर्माण किया, वे राजामोंसे वन्दनीय-अथवा दुर्विनीत राजाम पनित--स्वपर-हितकारी वचनों (ग्रन्थों के प्रणेता और दर्शन ज्ञान-चारित्रसे परिपूर्ण भीपूज्यपाद स्वामी (अपने गुणोस ) खूब ही प्रकाशमान है। जैनेन्द्र निजशब्दमागमतुलं सर्वार्थतिः परा सिद्धान्ते निपुणवमुघकविता जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गयैः।-अवयवेलगोल शिल... जिनका 'जैनेन्द्र' (व्याकरण) शमशास्त्र में अपने अतुलित भागको 'सकार्यसिद्धि' (तत्वार्थटीका) सिद्धान्तमें परम निपुणताको, जैनाभिषेक' ऊँने दर्जेनी कविताको, बन्दसान मुखिकी बचाता (सनाचातुर्य) को और 'ममाधिशतक' जिनकी स्वात्मस्थिति (स्निपचना)ो संघारमें शिानों पर प्रकट करता है वे 'पूज्यपाद' मुनीन्द्र मुनियोंके गणोंसे पूजनीय हैं।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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