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________________ वर्ष ३, किरण ..] नृपतुंगा मतविचार कहनसे मूल कान्यका सन्तिम गद्य भाग भी परन्तु इसके बराबर असंबद्ध दन्तकथा और इसके द्वारा ही जोड़ा हुआ मालूम पड़ना है । इस कोई नहीं। कारण, कालिदाससे जिनसेन कमसे बातको और दृढ़ करने वाला एक और प्रबल कम २०० वर्षों के करीब 1 पीछे हुमा, अथवा आधार है । वह यह है: 'मेघदूत' से 'पार्श्ववाभ्युदय' श्रेष्ठकाव्य कहला इस पंडिताचाचायने अपनी व्याख्यामें अपने नहीं सकता, उसे श्रेष्ट बनाने के उद्देश्यसे यह असं. से करीब ५५०-६०० वर्षों के पीछे इम'पावाभ्युदय' बद्ध जनश्रुति अपने अनुबंधमें घुसेड़कर पंडिताकी उत्पत्ति-सबन्धमें इस प्रकार कहा है कि काली- चार्यने जिनमेनको अन्तवादी बना दिया। इसके दास नामका 'कश्चित्कवि' 'मेघदून' नमक काव्य- सिवा इतिहासप्रमाण कोई मिलता नहीं; वैसे ही की रचना करके, मदोद्धर'होता हुआ 'जिनेन्द्राघि बकापुर अमोघवर्षकी राजधानी नहीं थी, यह बात सरोजेन्दिन्दिरोपम' * अमोघवर्षके राज्य पहिले ही कही जाचुकी है। इन सब कारणोंसे 'बंकापुर' में आया था, और उस अमोघवर्षको- यह मालूम पड़ता है कि पंडिता वार्यने लोगोंसे सस्वस्य जिनसेनर्षि विधाय परमं गुरुम् । कही हुई दन्तकथा पर विश्वास रखकर उसे दृढ सद्धर्म योतयंस्तस्थौ पितृवत्पातयन् प्रजाः ॥ करने के उद्देश्यसे अपने अनुबन्धमें घसड़कर उसके इस प्रकार वर्णित किया है । माथ ही, वहाँके आधारमे जिनसेन अमोघवर्षका गुरु था यह बात रहने वाले विद्वानों की निंदा करते हुये ( 'विदुषो- 'पार्श्ववाभ्युदय' के प्रतिसर्गके अन्तिम गद्य में वगणयैष') कालीदास के इस काव्यको अमोघवर्ष लिखकर और उसके सिवाय अपनी व्याख्याके के सामने पढ़ने पर, उसकी विद्याहंकृति निवारण प्रत्येक सर्गके अन्तिम गद्य में पुनः पुनः जोरसे करने के उद्देश्यसे और उसे 'सन्मोद्दीप्ति' पैदा कही होगी। अतएव यह मूलकाव्यकी सर्गान्तिम करानेकी इच्छास अपने 'सतीर्थ्य' विनयसेनसे गद्यरचना जिनसेनकी स्वतः रचना नहीं है, वह प्रेरित एक-पाठो जिनसेनने उस काव्यके प्रत्येक इस व्याख्याता पंडिताचार्य द्वारा या और किमीक चरणको क्रमशः प्रतिवृत्तमें वेष्टित करके इस 'पा- द्वारा जोड़ी गई होगी। इतिहासको दृष्टिमे उसकी वाभ्युदय' की रचना की,और फिर उसे आस्थानमें बातें जिनसेनके समयसे बहुत ही आधुनिक होने पढ़कर अपने काव्यमे ही कालिदासने प्रत्येक के कारण उसे निराधार समझ कर छोड़ना पड़ता श्लोकसे चरण चराकर (.'स्तेयात' ) 'मेघदूत' की है। रचना की है, ऐसा कहा बतलाया !! ई. सन् ६३४ के 'ऐहोने के शासबमें कानि. ___ * इस व्याख्याके अन्तिम गोंमें तथा अनुबन्धों में अथवा कान्यके प्रतिसर्गके अन्तिम स्थान पर जोड़े हुए गोंमें, इस काव्यमें (५,७.) विखाई देने वाले "सविजयता रविकीतिः कविताभितकाविलास 'अमोघवर्ष' नामके सिवाय उ.मका और कोई नामा- भारविक्रीतिः ।।" तर नहीं है। (मा.०मा०.०१) दासका नाम है
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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