SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ३, किरण ३] सावक्राका रूपान्तर जाटवंश __ [२४३ वर्णन हारिमद्रीय आवश्यक-वृत्ति पृष्ठ ६७७ में एक कपोल-कल्पना भावा है। उसका उदाहरण इस प्रकार है: महाराजा श्रेणिक भगवान महावीरदेवके परम दमो विसजिमो बरगो, त भणइ चेडगो-किइ ह वाहियकुले भक्तोमें से एक थे। आपका जैन होना प्रामणों को देमित्ति पडिसिहो। बड़ा अखरता था। इसलिये प्रामणों ने उनके अर्थात-महाराजा चेटकने अपनी कन्या , |बाहीक कुलके संबन्धमें एक कपोल कल्पना सुज्येष्ठाकी मंगनी करनेवाले महाराजा श्रेणिकके * महाभारत कर्णपर्व ८ में निम्न प्रकार जोड़ दी हैंदूतको कहा कि, क्या मैं वाहिककुलमें अपनी बाहिश्च नाम होकश्च विपाशायां पिशाको । कन्याको दूंगा ? ना! ना!! ऐसा प्रतिषेध करके तयोरपत्यं बाहीका, नैषा सष्टिः प्रजापतेः॥ दूतको विसर्जित कर दिया। अर्थात्-विपाशा पंजाबकी व्यास नदी के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके रचयिता किनारे पर 'वाहि' और 'होक' नामके दो पिशाच कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रजी महाराज रहते थे। उनकी संतान वाहीक कहलाई। उनकी भी ऊपर लिखी बातको इस प्रकार लिखते हैं. सृष्टि प्रजापति ब्रह्मा से नहीं हुई। चेटकोऽप्पग्रीदेवमनात्मशस्तव प्रभुः। श्रमण-ब्रामण संघर्ष वाहोक-कुलजो वांछन् , कन्या हैहयवंशजाम् ॥ साम्प्रदायिक असहिष्णुता मनुष्यकी बुद्धि पर -त्रि० श० च० पर्व १०, सर्ग ६, पृ० ७८ । परदा डाल देती है । भगवान महावीर और अर्थात-चेटक इस प्रकार बोले कि तेरा राजा महात्मा गौतमबुद्धकी धार्मिक क्रांतिने प्रचलित अपना स्वरूप भी नहीं जानता है, जो वाहीक कुल ब्राह्मणसमाजके गुरूडमवादकी हंबग बातोंको में पैदा होकर हैहयवंश की कन्याको चाहता है। निस्सार साबित कर दिया था। लोगोंकी चेतना प्रस्तु। उषःकालके सुनहरे प्रभावमें जागृत हो उठी थी। "क्या मैं अपनी कन्याको वाहीक कुलमें हूँ ? ना" चेटक महाराजाके ये शब्द क्या वादीक कुलकी निम्नता नहीं जाहिर करते। यह प्रश्न होना स्वाभाविक है । इसके उत्तरमें इतना ही लिखना काफी होगा कि रुक्मिणी-हरणकै समय भीकृष्णके लिए रुक्मी-कुमार का यह कहना कि "मेरी बहन ग्वालेको नहीं म्याही जा सकती," इस वाक्यके भाव पर पाठक विचार रुक्मो शिशुपालका साथी था। उसकी इच्छा थी कि रुक्मिणीका विवाह शिशुपालसे हो । श्रीकृष्ण शिशुपालके विरोधी थे। राजामोंका नियम है कि, मित्रका मित्र उनका भी मित्र होता है और मित्रका शत्रु उनका मी शत्रु होता है। इसी शत्रुतास प्रेरित होकर रूपमीने ऐसा कहा था। इसमे श्रीकृष्णका उच्चत्व-नीचत्व सिद्ध नहीं होता। ठीक ऐसी ही बात श्रेगिकके कुलके लिए महाराजा चेटककी है। चेटक प्रधान जेन था, और अंणिक कट्टर तब बौद्ध धर्मावलम्बी था। यह नियम-सा है कि, एक संप्रदाय वाला दूसरे संप्रदाय वालेको नीची दृष्टिम देखता है और अपने भाव जाति, कुल, वंश, देश, स्वभाव आदिको भोट में किसी न किसी तरहसे व्यक्त कर ही देता है। चेटकके वचनों में भी यही भाव निहित है, जो कि जबरन ध्याहके बाद श्रेणिकके जैन हो जाने पर मिटे दिखाई देते है। भधिक क्या एक कुलका पाह्मण दूसरे कुलके ब्राह्मणों को आज भी तो हीन समझता है। इसलिए चेटकका कथन वाहीक कुलको निम्नता नहीं सावित करता। मामारत जिसे, कि हम माज देखते है, यह तीन बार में और कम में कम तीन भादमियों-दारा बना है। प्रारम्भ में पांडवों के समकालीन श्रीव्यासजी द्वारा जो ग्रन्थ बना वह 'जय' नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें केवल पांडवोंका हिमालयकी भोर जाने तक का किया। दूसरी बार भी वैशंपायन ने उसमें रामा अनमेमय तक की घटनाओं का संग्रह कर दिया और उसका माम 'भारत' कर दिया। भागे जैन-पौर-काल में सूतपुत्र सौनिक ने काफी दिकी और उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पोर-जन-पादि धर्मों की और उनके अनुयायियों की काफी बुराई की और गिराने की चेत की। याबास महाभारत-मीमांस में पाठक देख सकते है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy