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________________ २४२] अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ रूपान्तर होना परिस्थितिके अनुकूल संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनीय बौद्ध प्राचार्यों की सत्संगति से किसी खास के धातुपाठमें 'जट' धातुको देखकर भी अनुमान कारणवश सम्राट अशोक बौद्ध धर्मावलम्बी का होता है कि उस समय 'ज्ञात' का अपभ्रंश 'जाट' हो गया था। उसने बौद्ध धर्म का भारत में काफी रूपसं लोकमें पूर्णतया प्रचलित होगया होगा। प्रचार किया था। धर्मकी आज्ञाओंको शिला और अपने पूर्व भावों की प्रजातन्त्रीय संगठन पर अंकित करवाकर उन्हें अपने देशमें सर्वत्र के भावोंकी भी रक्षा कर रहा होगा। इस हालत में 'जाट' शब्दको संस्कृत साहित्य वाले कैसे प्रचारित किया था। “यथाराजा तथा प्रजा" के न्यायसे अन्यान्य लोगोंके साथ ज्ञातवंशके कई छोड़ देते ? 'जाट' शब्दकी प्रकृति भावानुकूल उन्हें निर्माण करनी ही पड़ी, जो 'जट' धातुके लोगोंका बौद्ध धर्मावलम्बी होजाना भी सम्भा रूपमें आज भी हमारे सामने मौजूद है। वित है। उस समय संस्कृत शब्द 'ज्ञात' का 'जाट' प्राकृत हो जाना भी परिस्थिति के अनुकूल ही विशेष इतिहास प्रतीत होता है। 'शात' और 'जाट'की एकरूपता जाननेके बाद उसके विशेष इतिहासको देखते हैं, तो काश्यप रूपान्तर हो जाने पर भी अर्थमेद नहीं आदि गोत्र ज्ञात-जाट वंशमें समान रूपसे मिलते ज्ञात शब्द का जो भावार्थ था, वह 'जाट' हैं। भगवान महावीरके पिता ज्ञात वंशके काश्यपशब्दमें वैसे ही ज्यों का त्यों सन्निहित है जैसे 'ज्ञात' गोत्रीय थे, तो जाट वंशमें भी काश्यप-गोत्र शब्द का भावार्थ उसके रूपान्तर 'जाति' शब्द में। आज भी मौजूद है। "ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ ऊपर की पंक्तियों में यद्यपि संस्कृत 'ज्ञात' का 'दि नार्थ वेस्टर्न प्रॉविंसज ऑफ आगरा एण्ड अपभ्रंश 'जाट' साबित किया गया है, पर वह अवध" नामक ऐतिहासिक ग्रंथमें मिस्टर डब्ल्यू संस्कृत के दायरे में भी अपनी हस्ती पूर्ववत कुर्क साहिब लिखते हैं, कि 'दक्षिणी-पूर्वी प्रान्तों बनाये रखता है, जैसे कि के जाट अपनेको दो भागोंमें विभक्त करते हैंसंघातवाच्ये जटधातुतोऽसौ, शिवि-गोत्रीय और काश्यप-गोत्रीय । षज्प्रत्ययेनाधिकृतार्थकेन । सिद्धोऽनुरूपार्थकजाटशब्दो 'वाहिक कुल' भी, जोकि पूर्वकालमें भगवान उपभ्रंशितो निर्दिशति स्ववृत्तम् ॥ महावीरके परमभक्त महाराजा श्रोणिकका था, अर्थात-संघातवाची 'जट' धातु से धन आज जाट-वंशमें एक जातिके रूपमें मौजूद है। प्रत्यय पाने पर 'ज्ञात' शब्द के अधिकृत अर्थ में इसके प्रमाणके लिए शब्दचिंतामणि नामक 'जाट' शब्द समर्थक सिद्ध हुआ। अपभ्रंश हो प्रसिद्ध कोश का ११६३ वा पृष्ठ देखने काबिल है। जाने पर भी वह अपने पूर्व चरित को-सात शब्द महाराजा श्रेणिकने वैशालीक महाराजा चेटक के मूलस्वरूप को-बनाता ही है। से उनकी कन्या सुम्येष्ठाकी मँगनीकी थी, उसका * समयस्स व भगवभो महाबोरस पिना कासवगुणं .... सिखये----
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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