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वर्ष ३, किरण ३)
झातवंशका रूपान्तर जाटवंश
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तंत्रवादी भावसंघ से भिन्न नहीं है, क्योंकि झाति थी-प्रयोगों में संस्कृत के '' का 'ज' एवं 'त' का संघके जो सिद्धांत महाभारतके उपर्युक श्लोकों में 'ट' उच्चारण हुआ मिलता है। न्याय-व्यादेखने को मिलते हैं, वे ही सिद्धांत ज्ञातवंशी करण-तीर्थ पंडित वेचरदासजी ने कई प्राचीन भगवान महावीरके सांसारिक एवं त्यागीजीवनमें प्राकृत व्याकरणोंके आधार पर जो नया 'प्राकृत देखनेको मिलते हैं। जैसे कि एकेश्वरवाद, व्याकरण' बनाया है, उसमें नियम लिखा है किईश्वरकर्तृत्ववाद, स्त्री-शूद्रके मोक्ष के लिये अनधि- "संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से कारित्ववाद आदि वादों का भगवान ने प्रतिवाद होता है, और यदि वह 'इ' पदके मध्यमें हो तो किया है। साथ ही, विरोधियों के विचारोंको भी उसका 'ज' होता है, जैसे कि संजा-संज्ञा-सण्णा।" विवेक-पूर्वक अपनाने की सहिष्णुताको रखने पृष्ठ ४१ वाले स्याद्वाद का, कर्मप्रधानवादका, किसी को ऊपर लिखे नियम से 'ज्ञात' के 'झा' का 'जा' कष्ट न देनेके रूप में अहिंसावाद का और इसी हाना
होना स्वाभाविक ही नहीं नियमानुकूल भी है। प्रकार के और भी अनेक सुन्दर वादों का सुचारु
सम्राट अशोककी धर्मलिपि रूप से प्रतिपादन तथा व्यवहार उनके जीवन में धर्मलिपियां अंकित हैं, उनमें तकार का और
प्राचीन शिलालेखोंमें सम्राट अशोककी जो श्रोतप्रोत मिलता है। ये बातें ऐसी हैं, जो सारे संयक्त तकारका टकार हुया मिलता है, और जेनासंसार की प्रजामें अशान्तिको मिटानेवाली गमोंकी भाषा में उस स्थानपर प्राकृत प्रक्रिया और शान्तिको देनेवाली हैं।।
के अनुमार तकार का डकार हुमा और संयुक्त हमारे जीवन-संस्कार भी हमें अपने पूर्वजोंकी सकारकां 'त' ही हुआ मिलता है:एक प्रकारकी बहुमूल्य देनगियां है। भगवानका अशोकलिपि भागमभाषा संस्कृत पुण्य जीवन-कल्पतरु ज्ञातवंशकी दिव्य भमिको पाटिवेदना पडिवेपणा प्रतिवेदना बहुत कुछ श्रेय-भागी बनाता है। भगवानके अव. पटिपाति पडिवत्ति प्रतिपाति तीर्ण होने पर हिरण्यसे, सुवर्णसे, धन, धान्यस,
कट कड, कय राज्यसे, साम्राज्य-संपत्ति से, और भी अनेक प्रकार
मड, मय कायद
कर्तव्य सबढ़नेवाला वह ज्ञातवंश आज कहां हैकिस कटव, कटविय
कित्ति रूपमें है ? यह पुरातत्वके अभ्यासियों के लिए पास किति, किटि
-प्रा.का.१०३८ अन्वेषणीय विषय है।
अशोकलिपि के इन उदाहरणों से 'ज्ञात' ज्ञात का जाट
शब्दमें पड़े हुए सकार का टकार होना भी प्रमाणित रूपान्तर परिस्थितिको देखते हुए करीब दो होता है । इस हालत में यह बात भली प्रकार हजार वर्ष हुए, 'ज्ञात' का 'जाट' हो गया प्रतीत मानी व जानी जा सकती है कि अशोक के जमाने होता है। क्योंकि दो हजार वर्ष पूर्वकी प्राकृत में 'शात' शब्द का रूपान्तर 'जाट' बन गया हो भाषाके जो कि सर्वसाधारणकी बोलचालकी भाषा तो कोई वान्जुब नहीं।
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