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________________ २४४ ] यह बात ब्राह्मणोंके लिये असा थी। उन्होंने उनकी तर्क-संगत-युक्तियोंसे निर्वाक् होकर जैन व बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंको नास्तिक, उनके धनुयाथियोंको पिशाचोंकी संतान, और उनकी तीर्थभूमियोंको अनार्यभूमि आदि आदि उपाधियों से विभूषित (१) कर दिया था। उस समय श्रमणब्राह्मण संघर्ष अपनी पराकाष्ठाको पहुँच चुका था । श्रमण-ब्राह्मण संघर्ष की तत्कालीन परिस्थितिको देखते हुए कई लोग अनुमान कर बैठते हैं, कि, जहां ब्राह्मणोंने जैन-बौद्धोंको अनार्य, पिशाच, नास्तिक आदि बताया, वहां श्रमण-सम्प्रदाय वालने उन्हें "ब्राह्मणाः धिग्जातयः " कहना-लिखना शुरू कर दिया। जिसकी छाया भगवान महावीरके गर्भ-परिवर्तनकी घटनामें स्पष्टरूपसे झलक रही है । जिस ब्राह्मण जातिके इन्द्रभूति आदि गणधरोंको जाति सम्पन्न और कुल सम्पन्न जैन आगमों में बताया गया है, उन्होंमें भगवान महावीरके प्रसंग ब्राह्मणों को धिग्जाति-नीची जाति वाले बताना एक समस्या है। जैनधर्म और बौद्धधर्मके साथ ब्राह्मणोंका विरोध पहिले तो सिद्धांत-भेदसे हुआ था, पर वह अनेकान्त [ पौष, वीर निर्वाण सं० २२६६ 1 फिर जातिगत हो गया। इसलिये धन धर्मोके अनुयायी क्षत्रिय वर्णको क्षत्रिय माननेसे ही ब्राह्मणोंने इनकार कर दिया । स्मृतियोंमें लिख दिया, कि “कलो सन्ति न क्षत्रियाः” – कलियुगमें क्षत्रिय होते ही नहीं । ब्राह्मणौने, अपने इस प्रचार से यथावांच्छित परिणाम न निकलते देख, एक चाल और चली । साम्राज्यवादी विचारोंवाले चहुण, पडिहार, सोलंकी आदि उत्तरी भारत के कई क्षत्रियोंको आबू पर्वत पर यज्ञ समारोहमें निमन्त्रित किया । उनमें कई ज्ञातवंशी भी शामिल हुये थे उन सबको ब्रह्मणोंने, उन पर अपनी भेद नीति चलाते हुए, अग्निकुली विशेषण देकर एक नये कुलकी स्थापना करदी । और इस समारोहमें जिन क्षत्रियोंने उनका साथ न दिया उनसे उनका विरोध करा दिया। इसका फल यह हुआ जैसे चमत्कारिक नामको धारण कर अपने ही कि, अग्निकुली, ब्रह्मकुली आदि क्षत्रिय 'राजपूत' वंशके भाइयोंसे घृणा करने लगे। उस घृणाका शिकार कई ज्ञात वा जाटवंश वालोंको भी होना पड़ा । * मथुराके प्रसिद्ध ऐतिहासिक कङ्काली टीलेसे प्राप्त योगपट्टोंमें भगवान महावोरकी गर्भ-परिवर्तनकी घटनासे अंकित एक यागपट्ट मिला है। यह भाजकल लखनऊ म्यूज़ियम में मौजूद है। उसकी रचना ऐतिहासिक लोग दोहज़ार वर्ष पूर्वको बताते हैं । + पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊने अपने 'भारतके प्राचीन राजवंश' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थमें इस घटना पर अच्छा प्रकाश डाला है और वह 'परमारवंशकी उत्पत्ति' के रूप में इस प्रकार है: "परमार वंश की उत्पत्ति" राजा शिवप्रसाद (सितारेहिन्द) अपने 'इतिहास- तिमिर - नाशक' के प्रथम भागमें लिखते है कि 'जन विधर्मियोंका अत्याचार बहुत बदगथा तब ब्राह्मणोंने अर्बुदगिरि (भानू) पर यह किया और मन्त्रबल से अग्निकुण्ड में से इत्रियोंके चार नये वंश उत्पन्न कियेपरमार, सोलंकी, चौहान और पडिहार ।' अबुल फजलने अपनी आईने अकबरी में लिखा है कि 'जब मास्तिकोंका उपद्रव बहुत बढ़ गया तब भाबू पहाड़ पर ब्राह्मखोने अपने अग्निकुण्डले परमार, सोलंकी, चौहान, भोर पडिहार नामके वार वंश उत्पन्न किये ।' पद्मगुप्त ने अपने नवसाहसांक चरित्र के ग्यारह में सगमें परमारोकी उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है:
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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