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ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश
धर्मविपकी प्रधानतासे चैन बौद्धकालके बाद ब्यापी होगया, श्रेणिक, कोणिक, संप्रति, समुद्र प्रामणोने और उनके अनुयायियोंने 'जाट क्षत्रिय गुप्त आदि जाटवन्शीराजाओंको इतिहास-लेखकोंनहीं हैं, यह कहना प्रारम्भ करदिया । वरना क्या ने 'राजपूत' बना दिया। प्रामणोंकी मेदनीतिसे कारण है कि राजपूत परमारोंको तो क्षत्रिय रूपसे आपसी विद्वेष पैदा होगया। समयप्रवाहने भी और जाट परमारोंको क्षत्रियेतर रूपसं माना जाय ? कुछ साथ न दिया। इन मम कारणोंसे जाट स्वयं इस धार्मिक विद्वेषने न केवल जाटोंको ही अप- भी प्रात्म-सम्मान भूलने लगे। मानित किया बल्कि उनके जैसे कई विशुद्ध क्षत्रिय- कर्नल टॉड जैसे अनुभवी लेखकको इसीलिये वन्शोंको भी नहीं छोड़ा। इसीसे तो विदेशी अपने टॉडराजस्थानमें लिखना पड़ा किपाकामकोंने पुण्यभूमि भारतको पराधीन बनाकर "जिन जाट वीरोंके पराक्रमसे एक समय उसे पासवाकी जंजीरोंसे जकड़ दिया।
समस्त संसार कांप गया था, भाज उनके वंशधरजाटोंका व्यवहारादि __गण राजपूताना और पंजाबमें खेती करके अपना प्रायः स्वतन्त्र विचारके होनेसे जाट लोगोंने जैसे गुजर करते हैं x x x x अब इनको देखकर ब्राह्मणोंको गुरु माननेका विरोध किया ठीक वैसे ही अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि, ये खेतिअपने बाप दादोंकी कोविं गानेवाले भाट-चारणोंको हर जाट उन्ही प्रचण्ड वीरोंके पशधर हैं भी प्रोत्साहन नहीं दिया। अपनी वीरताके प्रचण्ड जिन्होंने एकदिन माघे एशिया और योरोपको कारनामोंको भी उन्होंने लेखबद्ध नहीं किया। उनमें- हिला दिया था। से जो साम्राज्यवादी होगये, जिनका प्रमुत्व संसार• पर्शियन-हिस्ट्रीके लेखक जनरल कनिंघमने हतातस्यै कवाधेनुः कामसूर्गाधिसूनुना । कार्तवीर्याजनेनेव जमदग्नेरमीयत ॥१५॥
x अथापर्व विदामाथ, समंत्रामाहुतिं ददौ। विकसद् विकट ज्वाला, मटिले जातवेदसि ॥१७॥
ततः षणावसकोदण्डः, किरीटी कांचनादः । उज्ज गामाग्नितः कोऽपि, सहेम कवच:पुमान् ॥१८॥
अर्थात्-पावाकु वंशियोंके पुरोहित वशिष्ठ ऋषिकी कामधेनु गावको गाविसुत विश्वामित्रने चुरावा। तब भपर्ववेदके बातामोंमें प्रथम मुनि वशिष्ठने फैलती हुई विकट वालाभोंसे उत्पन्न मर्यकर अग्निमें मंत्र सहित बाहुतियां दी। इससे झटपट धनुषारी, मुकुटबाला, स्वजनवाला, एवं सोनेके कवचवाला कोई एक पुरुष भग्नि से पैदा हुआ।
परमार इति प्रापस्स मुने मचायंवत् । मोलितान्य नपच्छत्र, मातपत्र च भूतले ॥७॥ अर्थात्-उसने वशिष्ठके दुश्मनोंका नाश करडाला, अत: ऋषिने प्रसवो 'परमार' ऐसा सार्थक नाम दिया । यही बात पाटनारायण के मंदिरके १३४४ के शिला लेखमें भाई है। सोही मान् परके अचलेश्वर मंदिरमें लगे लेखपर भी अंकित है।
वशिष्ठ-विश्वामित्रकी लड़ाईका वर्णन वाल्मीकि रामायण भी है। परन्तु उसमें भग्निकुंडसे उत्पन होने के स्थान पर नंदिनी गोदारा मनुष्योंका उत्पन्न होना और सापही उन मनुष्योंका शक, यवन, पलवमादि जातियोंके म्लेच्छ होना भी लिखा। धनपालने १०७. के करीब तिलकमंजरी बनाई थी उसमें भी इनकी उत्पत्ति भग्निकुंटही लिखी।
अनेक विहानोका मत है कि ये लोग मााण और त्रिय वर्णकी मिमित संतान थे। अथवा ये विषमी थे और मामलों शराब किये जाकर ये पत्रिव बनाये गये। तथा इसी कारण इनको 'प्रसपत्रकुलीन: लिख कर हमकी पत्तिके लिए अग्निकुंडकीया बनाई गई।"
भारत के प्रा.प्र. प्र. भाग १.१00-05