SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] मत्य अनेकान्तात्मक है उदाहरणकं लिये 'मनुष्य' को ही ले लीजिये, की अपेक्षा जिमकी पर्तिके लिये विज्ञानका निर्माण यह कितनी विशाल और बहुरूपात्मक सत्ता है. हुआ है, मत्य है और इसलिये उपयोगी है; परन्तु इमका अन्दाजा उन विभिन्न विज्ञानोंको ध्यानमें अन्यदृष्टियों, अन्यप्रयोजनोंकी अपेक्षा और लानेसे हो सकता है जो 'मनुष्य' के अध्ययनकं मम्पूर्णमत्यकी अपेक्षा वही विज्ञान निरर्थक है । आधार पर बन हैं । जैसे:-शारीरिक-रचनाविज्ञान अतः यदि उपयुक्त विज्ञानोंमेम किमी एक विज्ञा(Anatoms), शारीरिक व्यापारविज्ञान (Ph. नको मम्पूर्ण मनुष्यविज्ञान मान लिया जाय तो siologs), गविज्ञान (Emilbryoioys),भाषा- वह हमारी धारणा मिथ्या होगी । अत: हमारा विज्ञान (Philology), मनोविज्ञान (iPsycho ज्ञानगम्य, व्यवहारगम्य मत्य एशि मत्य , logs), मामाजिक जीवन-विज्ञान (Sociology'), मापेक्ष सत्य है । वह अपनी · . . श्रः जातिविज्ञान (Ethnology), मानवविर्वतविज्ञान प्रयोजनकी अपेक्षा सत्य है । याद . ' अ f. Anthropology), श्रादि । इनमें प्रत्येक विज्ञान और अन्यप्रयोजनकी कमौटीम दवा आय या अपने अपने क्षेत्रमें बहुत उपयोगी और मत्य है। यदि उसे पूर्ण सत्य मानलिया जाय तो वह निर. परन्तु कोई भी विज्ञान पूर्णमत्य नहीं है, क्योंकि थंक, अनुपयोगी और मिथ्या होगा । 'मनुष्य' न केवल गर्भस्थ वस्तु है-न केवल मप्तधातु-उपधातु-निर्मिन अङ्गोपाङ्ग वाला एक विशेष 4 (म) द्रव्यानयोगतर्कणा-१-६ आकनिका स्थल पदार्थ है-न कंवल श्वासोच्छवाम (मा) पडाध्यायी-१५६० लता हुआ चलना-फिरना यन्त्र है-न कंवल (इ) निरपेक्षा नया मिश्या मापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत । भाषाभापी है ... यह उपयक्त मब कुछ होता हुआ -प्राप्तमीमांसा, १० । भी इनसे बहुत ज्यादा है । इमलियं प्रत्येक मनुष्य (0.1.E. Taylor Elements of Vetaphysis. P. 214, Postnot . "The degree of uuth: मम्बन्धी विज्ञान उस दृष्टिकी अपेक्षा जिमम कि । apart from consideration of the purpose 'मनुष्य' का अध्ययन किया गया है.-उम प्रयोजन mein to timilfil.." स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य १. नियम एक तरहसे इम जगतका प्रवर्तक है। ६. इन्द्रियाँ तुम्हें जीतें और तुम मुख मानो, २. जो मनुष्य मत्पुरुषोंके चरित्र रहम्यको इसको अपना तुम इन्द्रियोंक जीतनेमे ही मुख, पाता है वह परमेश्वर होजाता है। श्रानन्द और परमपद प्राप्त करोगे। ३. चंचल चित्त मब विषम दुःम्वोंका मूल है। ७. राग बिना मंमार नहीं और संसार बिना ४. बहुतोंका मिलाप और थोड़ोंक माथ अनि गग नहीं । समागम ये दोनों ममान दुःखदायक हैं। ८. युवावस्थामें मवमंगका परित्याग परम५. समस्वभावीके मिलनेको ज्ञानी लोग एकान पदको देता है। a doctrine contains cannot for determined
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy