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________________ २६ अनेकान्त 1 कि सत्यका बहुविध साधनों, बहुविध संज्ञाओं और बहुविध शैली से मदा प्रदर्शन किया जाता रहा है इमीकं प्रदर्शनके लिये शब्द, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि साधनों से काम लिया जाता है। सही बायके अनेक वाचक शब्द प्रसिद्ध हैं । उस हीके सुगम बोधके लिये अलंकारिक और तार्किक शैली प्रचलित हैं । किसी वस्तुकं वाचक जितने शब्द आज उपयोगमें आरहे हैं, उन सबके वाक्य अनुभव एक दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु एक दुसरेके विरोधी नहीं हैं । वे एक ही वस्तुकी भिन्न भिन्न पर्यायोंके बाचक हैं और इसीलिये उनका नाम पर्य्यायवाची शब्द ( Synonym) हैं। यह बात दूसरी है कि अज्ञानताकं कारण आज उन सब शब्दोंकी हम बिना उनकी विशेषता समझे एक ही अर्थ में उपयुक्त करें, परन्तु, भाषाविज्ञानीजन उन समस्त पर्यायवाची शब्दोंकी भिन्न विशेषता जानते हैं । ये विभिन्न पर्य्यायवाची शब्द एक ही देश एक ही काल, एक ही जाति, एक ही व्यक्ति की सृष्टि नहीं हैं, प्रत्युत विभिन्न युगों, विभिन्न देशों, विभन्न ना तियों और विभिन्न व्यक्तियोंकी सृष्टि हैं। यह बात शब्दों के इतिहास ज्ञात हो सकती है। हमारा ज्ञानगम्य और व्यवहारगम्य सत्य एकाधिक और सापेक्ष सत्य है । वर्ष ३, किरण १ द्वारा सम्पूर्ण मत्स्यांशोंको नहीं जान पाते । श्रयुकर्म उनकी पूर्णता की प्रतीक्षा नहीं करता । अतः उन्हें अपने अधुरे अनुभवों के आधार पर ही अपने दर्शनका संकलन करना होता है। ये अनुभव सबके एक सामान नहीं होते। जैसा कि ऊपर बन लाया है, वे प्रत्येकके दृष्टिभेदके कारण विभिन्न प्रकारकं होते हैं। दृष्टिकी विभिन्नता ही विज्ञानों और दर्शनों विभिन्नताका कारण है । परन्तु इस विभिन्नताका यह आशय नहीं है कि समस्त विज्ञान और दर्शन मिथ्या हैं या एक सत्य है और अन्य मिध्या हैं। नहीं, सब ही विज्ञान और दर्शन वस्तुकी उस विशेषदृष्टिकी जिससे विचारक ने उसे अध्ययन किया है— उस विशेष प्रयोजनकी जिसको पूर्ति के लिये मनन किया है, उपज हैं। अतः अपनी अपनी विवक्षित दृष्टि और प्रयोजनकी अपेक्षा सत्र ही विज्ञान और दर्शन सत्य हैं I उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि हम केवल सत्यांशोंका ग्रहण करते हैं पूर्णमत्यका नहीं। और सत्यांशमें भी केवल उनका दर्शन करते हैं जो वर्तमान दशामें व्यवहार्य और जीवनोपयोगी हैं। साधारणजनका तो कथन ही क्या है, बड़े-बड़े तत्ववेत्ता भी अपनी अलौकिक प्रतिभा और तर्क कोई भी सिद्धान्त केवल इस कारण मिध्या नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्णसत्य न होकर सत्यांश-मात्र हूँ। चूंकि प्रत्येक सत्यांश और उसके आधार पर अवलम्बित विज्ञान और दर्शन अपने अपने क्षेत्र में जीवनोपयोगी और व्यवहारमें कायकारी हैं। अतः प्रत्येक सत्यांश अपनी अपनी दृष्टि और प्रयोजनकी अपेक्षा मत्य है । सिद्धान्त उमी समय मिध्या कहा जा सकता है कि जब वह पूर्णसत्य न होते हुए भी उसे परसत्य माना जाये । A. E Tavlor Elements of Metaphysics, London. 19/4-P. 214. "For a proposition is never untrue simply becau e it is not the whole truth, but only when, not being the whole truth, it is mistaken to be so."
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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