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सरसयोगाभ्यास
है। इस अर्थ में ईश्वर राष्ट्र की, समाजकी, देशकी अमूर्त आगे उनकी कल्पना इतनी और आगे बढ़ी है किस
आत्मा है जिमके द्वारा राष्ट्र, समा न या देशका प्रत्येक विराट पुरुषाकृतिमे किसी नियंताशक्ति प्रात्माकी भावव्यक्ति स्पंदित, प्रेरित या प्रभावित होता है। इस राष्ट्र- श्यकता है, जिसकी कल्पना विश्वप्रकृतिके रूपमें ही पुरुष, समाज-पुरुष, देश-पुरुष या विश्व-पुरुषके जाग्रत की गई है । यथाया सुप्त होनेपर जुदे जुने सत्, कलि आदि युगोंका भमिर्धा चपी जसूयौं विशः भोत्रे चामत्ताबदेवा।
आविर्भाव होता है, ऐमा ऐतरय-ब्राह्मणमें लिखा है। वायुः प्राणो हदयं विश्वमस्य पदम्या पृथिवीडोष सर्व इस समाज-पुरुष या राष्ट्र-पुरुषकी जाग्रतिके चिह्न हम लोकान्तरात्मा । वर्तमान भारतीय आन्दोलनमें देख रहे हैं । यह पुरुष
-मुण्डकोपनिषद् । समष्टिरूप है,इसीलिये कहा है कि
सो दिशः अर्ध्वमधवतिर्वप्रकाशयन् मानते पाना सहस्रशीर्षापुरुषः सहबासः सानपात् । एवं सदेवो भगवान्बरेश्यो विश्वस्वमावादधितिष्ठत्येक। --ऋग्वेद-पुरुषसूक्त
-श्वेताश्वतरोपनिषद् । अर्थात्--यह हज़ार सिरवाला, हज़ार अखिोवाला अर्थात्-जिसकी मूर्धा श्रमि है, सूर्य-चन्द्र आँखें और हजार पैरों वाला पुरुष है । जिसप्रकार हम यह कहे हैं, दिशाये कान है, वचनादि देव है, वायु प्राण है, कि इस सभा या परिषद्के हज़ार मिर है अथवा भारत विश्व हृदय है, पैरों में पृथ्वी है ऐसा सर्वलोकातरात्मा माता के ३० कोटि बच्चे, उसी प्रकारका यह कथन है। है। ऊपर नीचे बाजकी सारी दिशात्रोको प्रकाश करने इस पुरुषके
वाला जो भगवान् वरेययदेव है वह विश्वके रूपमें कलिः शयानो भवति संबिहानस्तु द्वापरः। अवस्थित है। उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाते चरन् ॥ इ. विश्वको परिचालित करनेवाली वह शक्ति
-ऐतरेय ब्राझणः। कौनसी है, इस विषयमें मतभेद हैं। जडवादी वैज्ञानिक सोनेपर कलि, जंभाई लेनेपर द्वापर, खड़े होनेपर . उसे 'विद्युत' मानते हैं तथा कोई उसे 'सूर्य' मानते हैं, त्रेता और चलने लगनेपर सत्युग होता है । वोंके तथा अध्यात्मवादी उसे 'सत्य' अथवा 'अहिंसा' मानते वर्गीकरण के बाद जिस समाज-पुरुष--
है क्योंकि इन्हीं नैतिक नियमोंसे सब बंधे मालूम होते ममवत्रं भुजो पत्रं कृत्स्नमूरदरं विशः। हैं। महात्मा गाँधी 'सत्य' को ही परमेश्वर मानते हैं। पादौ यस्याश्रिताः एमाः तस्मै वर्णात्मने नमः॥ कुछ भी हो, जैनधर्मसे इनका कोई विरोध नहीं पाता;
के ब्राह्मण मुखरूप है, क्षत्रिय भुजारूप हैं, वैश्य क्योंकि इनसे कोई भी हम ईश्वरको मनुष्य के समान पेटरूप हैं तथा शूद्र पैरोंके आश्रित है, उस वर्णात्माको चेतन तथा रागद्वेषपूर्ण नहीं मानता । जैनधर्म तो बाइमेरा नमस्कार है।
बल, कुरान और भारतीय पाशुपत और वैष्णवमतके ईश्वरका तीसरा अर्थ आधिदैथिक है । जिस प्रकार रागद्वेषी व्यक्तिगत ईश्वरका विरोधी है। जैन लोग त्रिलोकको पुरुषाकार मानते है उसी प्रकार जैनधर्मानुसार मुक्त आत्माएँ सब एकसी ही। वेदोपनिषद् और योगके ग्रन्थोंमें भी माना है। इसके उनमें जो भेद था वह काल और कर्मकृत् था, और