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________________ भनेकान्त [पारिवन, वीरनिर्वाण सं०२११६ साधुजन लौकिक जिम्मेदारीसे रहित हैं. श्रत होने योग्य ) जीवोंको बतलाऊ-बही मनुष्य एव उनके लिए शत्रु-मित्र दोनों बराबर हैं, उन्हें अगले जन्ममें तीर्थकर होकर साधु अवस्था धारण किसीमे राग-द्वेष नहीं है। ___ करके फलस्वरूप वीतराग (निष्पक्ष ) सर्वज्ञ, और (२) पशु-समाजके विषयमें उदाहरण- हितोपदेशक होता है। एक चूहे पर बिल्ली झपटी, गृहस्थने बिल्लीको अब ममझमें आ जाना चाहिये कि जिन्होंने अघातक मार मारकर चूहेको छुड़ाया, गृहस्थ की स्वहित प्राप्त किया है, अथवा जिन्होंने वीनरागता. यह प्रवृत्ति चूहे के प्रति अधिकांशम प्रशस्तराग और पूर्वक हितको दख-जान लिया है और अनुभव बिल्ली के प्रति प्रशस्त द्वेषरूप हुई । इसी प्रकार एक कर लिया है, वे ही हितोपदेशक' होने के पण कुत्ता बिल्लीक ऊपर झपटा, गृहस्थन बिल्लीको अधिकारी हैं। छुड़ाया,गृहस्थकी यह प्रवृत्ति बिल्लीके प्रति अधिकांश अतएव ऐसा नहीं समझा जाय कि जैनागममें मे प्रशस्तराग और कुत्ते के प्रति प्रशस्तद्वेष रूप हुई। परहितका स्थान गौण और जैनागमोक्त माधु____ यहां पर अगर पूछो कि माधुजन दानके द्वारा चरित्र निम्न कोटिका है । बल्कि यह स्पष्ट कहा सहायता तो नहीं कर मकते, सो तो ठीक; परन्तु गया है कि - क्या उनमे अनुकम्पा-वृत्ति भी नहीं है ? तो उत्तर “साधारणा रिपौ मित्रे साधकाः स्वपरार्थयोः । यह है कि उनमअनुकम्पावृत्ति जरूर है,परन्तु उनकी साधुवादास्पदीभताः साकारे साधकाः स्मृताः॥" वृत्ति सवाशमें अप्रशस्त और अधिकांशमें प्रशम्न -प्रात्मप्रबोध, ११२ राग-द्वेषरहित, अंतर्मुखी होनेम वह ऐमें ममयमें अर्थात-जो शत्रु-मित्रमें समान है-मित्रोंमे दुःग्वी-कष्टो-जीवोंकी दशा पर अनकम्पापूर्वक राग और शत्रुओंसे द्वेष नहीं करते-अपन और "वस्तुस्वरूप-विचार" की ओर झक जाती है। परकं प्रयोजनको मिद्ध करनेवाले हैं, और माधवाद ___ इस प्रकार यहाँ आकर यह स्पष्ट हो जाता है के स्थान हैं-सब लोग जिनकी प्रशंसा करते है, कि जो परहित ( दूसरोंके माथ प्रशस्त रागादिक वे 'सा' अक्षरके वापरूप 'माधक' अथवा नहीं करना) है, उसम स्वहित ममाया हुआ है,और 'साधु' है। वह स्वयं प्रथम हो जाता है। सर गुरूदाम बनर्जीन अपने "ज्ञान और आगमम यहाँ तक बतलाया है कि जो मनष्य कर्म" नामक ग्रन्थ में स्वार्थ (स्त्रहित ) और परार्थ पूर्वभवमें दर्शनविशुद्धि, मार्गप्रभावना, प्रवचन- (पहित) की व्याख्या करते हुए बहुत कुछ लिखा ५ बत्मलत्व आदि सोलह भावना भाता है-यह है, जिमका सागंश यह है कि हमारा स्वार्थ भाता है कि कब मेरे रत्नत्रयकी ( मम्यग्दर्शन. परार्थ विरोधी नहीं, बल्कि परार्थक साथ मम्पर्ण म० ज्ञान, मच्चारित्रकी ) शुद्धि हो और कब मैं रूपसे मिला हुआ है। खुद म्वार्थसिद्ध किए बिना शुद्धिका मार्ग (मोक्षका मार्ग ) मम्पर्ण भव्य (मुक्त हम परार्थ सिद्ध नहीं कर सकते। मैं अगर खद असुखी हूँगा तो मेरे द्वारा दूसरोंका सुखी होना लोक या रा ननियम तोड़नेवाले अपने पुत्रोतकको कभी सम्भव नहीं।। प्राण दण्ड-जैमा निग्रह करने के अनेक उदाहरण पुराणों आशा है, इतने विवेचनसे उक्त 'क्यों' रूप में पाये जाते हैं। शंकाका कुछ समाधान होगा।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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