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वर्ष ३, किरण १२] प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ? चार दानोंक द्वारा दूसरों के प्राकृतिक ग परजनकृत भी अर्थपुरुषार्थमें गर्भित है। अब जरा सोचिये दुःख (कष्ट) दूर करना-उनकी महायता करना- तो, क्या यह पुरुषार्थ यूं ही-सहज हो -सिद्ध हो याने जीवोंकी दया पालना, तथा धर्म, अर्थ | और जाता है ?-इसके लिये लौकिक धर्म (लोकसमर्थित काम इस त्रिवर्गका अविरोधरूपसे मेवन करना राजधर्म-राजनियम ) का पालन करना पड़ता है बाह्य ब्रत-प्रधान या प्रवृत्ति-प्रधान अणुधर्मकं तब कहीं जाकर यह सिद्ध होता है। अंग हैं।
गृहस्थकं ऊपर इधर तो लौकिकधर्म पालनकी ये महान और अणु यों हैं कि-जहाँ अन्तः जिम्मेदारी और उधर पारलौकिकधर्म पालनकी व्रत-प्रधान या निवृत्ति प्रधान धर्मका अनुष्ठाता जिम्मेदारी है। जैमा कि कहा हैसाधु (वनस्थ ) अपनी ओरसे किसीको दुःख सर्व एव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः । ( कष्ट) नहीं पहुंचा करके-किमीके प्रति मोशमे यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतवृषणम् ॥ अप्रशस्त और अधिकांश प्रशस्त रागद्वेष नहीं
-यशस्तिलक करक--अपना और दूसरोंका हित संपादन करता सर्व एव विधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सतां । है, वहाँ बाह्य व्रतप्रधान या प्रवृत्ति प्रधान धर्मका यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥ अनुष्ठाता उपासक (गृहस्थ ) दूसरोंक प्रति
-रस्नमाला १५ अधिकांशमें प्रशस्त रागद्वेष करके अपना और द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । दूसरोंका हित-अहित दोनों संपादन करता है। लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः॥ उदाहरण लीजिये
--यशस्तिलक (१) मनुष्यममाज के विषयमें उदाहरण- भावार्थ-गृहस्थसे लौकिक या राजनियम
धर्म (पारलौकिकधर्म= सम्यक्दर्शन, ज्ञान, ऐम स्वीकार कराना अथवा ऐमा राजशासन चारित्र-वीतरागता ), अर्थ और कामका अविरोध स्थापित कराना कि जो धर्मको दूषण लगाने वाला रूपमं मेवन करने वाले गृहस्थका जीवन ऐम न हो। अनेक जटिल प्रसंगोंका-समस्याओंका-ममुदाय कितनी जटिल समस्याएँ हैं ! यही कारण है है, जिनमें प्रशस्त राग-द्वेष किए बिना जीवन निर्वाह कि अणुधर्म पालक गृहस्थकं लिए एक ऐसा जीवननहीं हो सकता है।
मार्ग निश्चित किया गया है कि जिम पर चलनेमे मित्रोंका प्राप्त करना और उनकी वृद्धि करना
. वह दोनों जिम्मेदारियोंके विरोधरूपी खतरेसे बच "विद्या भूमि हिरण्य-पशु-धान्य-भांडीपस्कर-मित्रा- जाता है । वह मार्ग है, शिष्ट (लोक या राजनियम दीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमः ।"
पालक ) जनोंका अनुग्रह करना और दुष्ट (बद(वात्स्यायन, कामसूत्र २.६) नियती लोक या राज-नियम-तोड़क)जनोंका निग्रह "यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ।" करना, चाहे वे कोई हों, बम इसीका नाम है
-सोमदेव-नीतिवाक्यामृत १ प्रशस्त राग-द्वेष ।