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________________ सम्पादकीय १ श्राभार और धन्यवाद 'अनेकान्त' एक वर्ष चल कर घाटेकं कार‍ बन्द हो गया था और कुछ वर्ष तक बन्द रहा था, यह बात किमी छिपी नहीं है । सन १९३८ में जब लाग्न सुखराम जी न्यू देहलो, वीरशामन जयन्तीक शुभअवसर पर सभापतिको हैसियतमे वीरसेवामन्दिर मे मरसावा तशरीफ लाए और आपके साथ माही नवयुवक भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय भी पधारे, तब आप दोनों ही सज्जनोंन वीरमंत्रामन्दिर कार्यों को देखकर 'अनेकान्त के पुनः प्रकाशनकी आवश्यकताको महसूस किया, लाला जीने पत्रकं घाटेकी जिम्मेदारीको अपने ऊपर लिया और गोयलीय जीनं पूर्ववत् प्रकाशक के भारको अपने ऊपर लेकर प्रकाशन तथा व्यवस्था सम्बन्धी चिन्ताओं का मार्ग साफ़ कर दिया, और इम तरह मुझे फिर से 'अनेकान्त' को निकालने के लिये प्रोत्साहित किया । तदनुमार दो वर्ष में यह पत्र बराबर ला तनसुखराज के संचालाकत्व और भाई अयोध्याप्रमादजी गोयलीयके व्यवस्थापकत्व में आनन्द के साथ प्रकाशित होता आ रहा है। दो वर्ष के भीतर पत्रको जो घाटा रहा वह मत्र लालाजीनं उठाया और गोयलीयजी को अपने आफिसवर्क के अतिरिक्त श्रोवरटाइममें प्रेम तथा प्रुफादिकी व्यवस्थादि विषयक जो दिन रात भारी परिश्रम उठाना पड़ा उसे आपने खसी ने उठाया । इम तरह आप दोनों सज्जनोंकी बदौलत 'अनकान्त' को दो वर्षका नया जीवन प्राप्त हुआ, इसके लिये मैं आप दोनों सज्जनोंका बहुत आभारी हूँ और आपको हार्दिक धन्यवाद भेट करता हूँ । आपके इस निमित्त को पाकर कितनोंको लेख लिखन की प्रेरणा हुई, कितने नये लेख लिखे गये, कितनी नई खोजें हुई, कितनी विचार जागृति उत्पन्न हुई, कितन ठोस साहित्यका निर्माण हुआ और उससे समाजको क्या कुछ लाभ पहुँचा, उम सबको बतलाने की जरूरत नहीं, यहाँ संक्षेपमें इतना ही कहना है कि उम सबका मुख्य श्रेय आप दोनों सज्जनों को हैजो अच्छे कामोंका निमित्त जोड़ते हैं वे ही प्रधानतया श्रेयके भागी होते हैं - और इसलिये आप समाजकी ओरसे भी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । यहाँ पर मैं उन उदार परोपकारी सज्जनोंका आभार प्रदर्शित किये बिना भी नहीं रह सकता जिन्होंने अपनी ओर से अजैन संस्थाओं - स्कूलों, कालिजों तथा पब्लिक लायब्रेरियों आदिको 'अनेकान्त' फ्री (त्रिना मूल्य) भिजवाया है, और इस तरह अनेकान्त- साहित्यको दूसरों तक पहुँचा कर उसके प्रचार में सहायता पहुँचाई हैं, इतना हो नहीं बल्कि 'अनेकान्त' के घाटेकी रकमको कम करने में सहयोग देकर उसके संचालकादिके उत्साहको बढ़ाने में भी मदद की है । अस्तु इस पुण्य कार्यमें सबसे अधिक महयोग श्रीमान दानवीर रा० ब० सेठ हीरालालजी इन्दौरने प्रदान किया है - श्रापने ५००) रु० की रकम देकर १५० अजैन संस्थाओं को एक वर्ष और १०० जैन मन्दिरों- पुस्तकालयों को छह महीने तक 'अनेकान्त' भिजवानेकी उदारता दिखलाई है। शेष मज्जनोंमेसे चार नाम यहाँ और भी खाम तौर से उल्लेखनीय हैं(१) ला० कुट्टनलालजी मैदे वाले देहली, जिन्होंने सबसे पहले ५१) रुपये देकर इस परोपकार एवं सत्महयोगकं कार्यमें पेश क़दमी की, (२) श्रीमन्न सेठ लक्ष्मीचन्द जो भेलमा ने १०१) रु० (३) जैन नवयुवक सभा जबलपुर, ने ३०) रु० ( ४ ) सेठ गुलाबचन्दजी टोग्या इन्दौर ने २५) रु० देकर संस्थाओंको पत्र फ्री भिजवाये । इस अवसर पर मैं अपने उन लेखक महानुको कभी नहीं भूल सकता, जिन्होंने समय समय पर अपने महत्व के लेखों द्वारा मेरी, अनेकान्तको और समाजकी सेवा की है। आपके सहयोग के विना मैं कुछ भी नहीं कर सकता था । 'अनेकान्त' को इतना उन्नत उपादेय तथा स्पृहणीय बनाना यह सब आपके ही परिश्रमका फल है ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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