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________________ ब्बेड, चापार, पीर विद्रांडवं.२०६६ हरि वामपवडीयो वेगवदी उपबीच मिवि दुवि। तृतीय भवमें अथवा उसी भवसं मुक्तिको प्राप्त गोस भविद पंचवि अंतरावं . करता है और क्षायिक सम्यक्त्व बाला जीव वह वाबबाह भोगोवभोग वीरिक अंतराय विश्णे। उत्कृष्टरूपसे चतुर्थभवमें मुक्त होजाता है। इवि सम्पुलपयडीयो बडदाससपप्पमा हुँति ।।१०२ उपसंहार इन गाथाभोंके बाद १९ गाथाएँ (१०३ से १२० नम्बर की )वे ही हैं जो कर्मकाण्डमें ३४ से अपरके इस संपूर्ण विवेचन और स्पष्टीकरण ५१ नम्बर तक दर्ज है। शेष ३९ गाथामोंमेंसे ३२ परसे सहपय पाठकोंको जहाँ यह स्पष्ट बोध होता गाथाएँ (नं० १२१ से १५१ ) कर्म कांडके दूसरे है कि गोम्मटसारका उपलब्ध कर्मकाण्ड कितना अधिकारमें और दो गाथाएँ (नं० १५८,१५९ ) अधूग और त्रुटियोंसे परिपूर्ण है, । वहां उन्हें छठे अधिकार में पाई जाती हैं। बाकीको पांच यह भी मालूम हो जाता है कि त्रुटियोंको सहज गमवाएँ जो कर्मकांडमें नहीं पाई जाती और ही में दूर किया जा सकता है-अर्थात् उक्त ७५ उसके छठे अधिकारमें गाथा नं० ८८८ के बाद गाथाओंको, जो कि स्वयं नेमिचन्द्राचार्यकी कति त्रुटि न जान पड़ती हैं वे इस प्रकार हैं:- रूपसे अन्यत्र (कर्मप्रकृतिमें ) पाई जाती हैं और इंसगविमुदिविय संपरयातं तहेव सीखवदे। जो संभवतः किमी समय कर्मकाण्डसे छूट गई सयदीचारो सि फुलं पाणवजोगं व संवेगो ॥१५॥ अथवा जुदा पड़ गई हैं उन्हें, फिरसे कर्मकाण्डमें सचीदो चागतमा साहुसमाही तहेव णायन्या। यथा स्थान जोड़ देनेसे उसे पूर्ण सुससंगत और विजाव किरियं परिहंतापरिवबहुसुदे भत्ती ॥१५॥ सुसम्बद्ध बनाया जा सकता है । आशा है पक्षणवरमामती भावस्सपकिरिय अपरिहाणीय। विद्वान् लोग इस अनुसंधान एवं खोज परसे मगष्पहाव बाबु पक्षणवच्छतामिदि जाये ॥१५॥ समुचित लाभ उठाएँगे। और जो सबन कर्मएवेहि पसत्येसोबसमावेहि केवलीमूने। काण्डको फिरसे प्रकाशित करना चाहें वे उसमें तिववरखामाम्म चदि सो सम्मभूमिजो मधुसो उक्त ७५ गाथाओंको यथास्थान शामिल करके तित्त्वावरसत्तका विषमवे तम्मवे इसिज्मदिवं। उसे उसके पूर्ण संगत और सुसम्बद्ध रूपमें ही बाइसम्मको पुण समरसेण दुचउत्वमवे non प्रकाशित करना श्रेयस्कर सममेंगे साथ ही जिन्हें इस विषयमें अनुकूल या प्रतिकूल रूपसे कुछ भी इन गावामोंमें तीर्थंकर नामकर्मको हेतुभूत विशेष कहना हो वे अपने उन विचारों को शीघ्र षोडशकारण भावनाओंके नाम दिये है, और यह ही प्रकट करने की कृपा करेंगे। बताया है कि इन प्रशस्त भावनामों के द्वारा केवलीके पादमुखमें कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थकर ता०२७-६-१० वीरसेवामन्दिर, सरसावा प्रकृतिका बंध करता है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि तीर्थकर नामकर्मकी सत्तावाला जीव
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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