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________________ भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर-निर्वावसं. टीकाकार, ६ धवलाकारके सन्मुख उपस्थित साहित्य, छपाई-सफाई भी उत्तम है। मूल्य भी परिश्रमादिको १०षट् खण्डागमका परिचय, ११ सत्प्ररूपणाका विषय, देखते हुए अधिक नहीं है। और इसलिये यह ग्रंथ १२ ग्रन्थकी भाषा, इतने विषयों पर प्रकाश डाला गया विद्वानों के पढ़ने, मनन करने तथा हर तरहसे संग्रह है। प्रस्तावना बहुत अच्छी है और परिश्रमके साथ करनेके योग्य है । इसकी तय्यारीमें जो परिश्रम हुआ है लिखी गई है। हाँ, कहीं-कहीं पर कुछ बातें विचारणीय उसके लिये प्रोफेसर साहब और उनके दोनों सहायक तथा आपत्तिके योग्य भी जान पड़ती हैं, जिन पर फिर शास्त्रीजी धन्यवादके पात्र हैं और विशेष धन्यवादके कमी अवकाशके समय प्रकाश डाला जा सकेगा। यहां पात्र भेलसाके श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी हैं, जिनके पर एक बात जरूर प्रकट कर देनेकी है और वह यह आर्थिक सहयोगके बिना यह मब कुछ भी न हो पाता, कि प्रस्तावनामें 'धवला' को वर्गणा खण्डकी टीका भी और जिन्होंने 'जैन माहित्योद्धारक फंड' स्थापित करके बतलाया गया है । परन्तु मेरे उस लेखकी युक्तियों पर समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है। कोई विचार नहीं किया गया जो 'जैन मिद्धान्त भास्कर' अन्तम श्री गजपति उपाध्यायको, जो मोडबद्रीके के ६ ठे भागकी पहली किरणमें 'क्या यह सचमुच- सुदृढ़ कैदग्वानेसे चिरकालके बन्दी धवल-जयधवल ग्रंथभ्रम निवारण है ? इस शीर्षकके साथ प्रकाशित हो राजोंको अपने बुद्धिकौशलसे छुड़ाकर बाहर लाये तथा चुका है और जिन पर विचार करना उचित एवं श्राव- सहारनपुरके रईस ला• जम्बप्रमादजीको सुपुर्द किया, श्यक था । यदि उन युक्तियों पर विचार करके प्रकृत और श्री सीताराम जी शास्त्रीको, जिन्होंने अपनी निष्कर्ष निकाला गया होता तो वह विशेष गौरवकी दूरदृष्टिता एवं हस्तकौशलसे उक्त ग्रंथराजोंकी शीघ्रातिवस्तु होता । इस समय वह पं० पन्नालालजी मोनीके शीघ्र प्रतिलिपियाँ करके उन्हें दूसरे स्थानों पर पहुंचाया कथनका अनुमरण सा जान पड़ता है, जिनके लेखके और इस तरह हमेशा के लिये बन्दी (कैदी) होनेके भयसे उत्तरमें ही मेरा उक्त लेख लिखा गया था । इस विषय- निर्मुक्त किया *, धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता । का पुनः विशेष विचार अनेकान्तके गत विशेषांकमें ये दोनों महानुभाव मबसे अधिक धन्यवादके पात्र हैं। दिए हुए 'धवलादि श्रुत-परिचय' नामक लेखमें वर्गणा- इन लोगोंके मूल परिश्रम पर ही प्रकाशनादिकी यह सब ग्खण्ड विचार' नामक उपशीर्षकके नीने किया गया है। भव्य इमारत बड़ी हो सकी है और अनेक सजनोंको उम परसे पाठक यह जान सकते हैं कि उन युक्तियोंका ग्रन्थके उद्धारकार्य ग सहयोग देनेका अवमर मिल मका ममाधान किये बगैर यह समुचित रूपसे नहीं कहा जा है। यदि वह न हुआ होता तो आज हमें इस रूपमें मकता कि धवला टीका पट ग्यण्डागमके प्रथम चार ग्रन्थराजका दर्शन भी न हो पाता । खेद है इन परोपग्वण्डोकी टीका न होकर वर्गणाग्वण्ड महित पांच खंडों- कारी महानुभावोंके कोई भी चित्र ग्रन्थमें नहीं दिये गये की टीका है। हैं। मेरी रायमें ग्रामोद्धारमें सहायकोंके जहाँ चित्र दिये इस प्रकारको कुछ त्रुटियोंके होते हुए भी ग्रंथका यदि श्री सीतारामजी शाखी ऐसा न करते तो यह संस्करण हिन्दी अनुवाद, टिप्पणियों, प्रस्तावना और इन ग्रन्थराजोंकी सहारनपुरमें भी प्रायः वही हालत परिशिष्टों के कारण बहुत उपयोगी हो गया है। होती जो मूरबद्रीके कैदखाने में हो रही थी।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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