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________________ ०६२ अनेकान्त अपने लेख (अनेकान्त वर्ष ३, किरण ४,१०२९७) में विस्तार के साथ प्रकट भी कर चुका हूँ। मूल ग्रन्थ में भी 'गोम्मटलंगहसुस' नामसे ही उसका उल्लेख है । उसमें अनेक गाथाएँ दूसरे ग्रन्थों पर से संग्रह की गई हैं और अनेक गाथाओंको कथन-प्रसंगको दृष्टिसे पुन: पुन: भी देना पड़ा है। इसलिये 'कर्मप्रकृति' की उन ७५ गाथाओं में से यदि कुछ गाथाएँ 'जीवकाण्ड' में या चुकी हैं तो इससे उनके पुनः कर्मकाण्ड में आजाने मात्र मे पुनरावृत्ति जैसी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती; क्योंकि कर्मप्रकृति की गाथाको छोड़कर कर्मकाण्ड में दूसरी भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो पहले जीव काण्ड में श्रा चुकी हैं, जैसे कर्मकाण्ड के 'त्रिकरणचूलिका' नामके अधिकारकी १७ गाथाओं में से ७ गाथाएँ पहले ataresमें आचुकी हैं। इसके सिवाय, खुद कर्मकार में भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो कर्मoresमें एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के लिये जो गाथाएँ १५५ नं० मे १६२ नं० तक पहले वा चुकी हैं वे ही गाथाएँ पुनः नं० ९१४ मे ९२१ तक दी गई हैं। और कथनों की पुनरावृत्तिकी तो कोई बात ही नहीं, वह तो अनेक स्थानों पर पाई जाती है। उदाहरणके लिये गाथा नं० ५० नामकर्मकी जिन २७ प्रकृतियों का उल्लेख है उन्हे ही प्रकारान्तर से नं०५१की गाथा में दिया गया है। ऐसी हालत में उन ७५ गाथाओं मैं कुछ गाथाओं पर पुनरावृतिका आरोप लगा - : [ चाश्विन, वीरनिर्वाय सं० २०१६ कर यह नहीं कहा जा सकता कि वे कर्मकाण्डकी गाथाएँ नहीं हैं अथवा उनके कर्मकाण्ड में शामिल होनेसे कोई बाधा आती है। $ वे ७ गाथाएँ जीवनकांडमें नं० ४७, ४८, ४३, १०, १३, १६, १७, पर पाई जाती हैं; और कर्मकांड में To cao, sis, sai, 405, 210, 811, 412 M उपलब्ध होती हैं । चूंकि हाल में 'कर्मकाण्ड' को ऐमी प्रतियाँ भी उपलब्ध हो गई है जिनमें वे सब विवादस्थ ७५ गाथाएँ मौजूद हैं जिन्हें 'कर्मप्रकृति' पर से वर्तमान मुद्रित कर्मकाण्डके पाठ में शामिल करने के लिये कहा गया था, और उन प्रतियोंका परिचय आगे इस लेख में दिया जायगा, अतः इस नम्बर पर मैं और अधिक लिखने की कोई जरूरत नहीं समझता । ( ३ ) जिस कर्मप्रकृति ग्रन्थके आधार पर मैंने ७५ गाथाओंका कर्मकाण्ड में त्रुटित होना बतलाया था उसमें मैंने गोम्मटमारको अधिकांश गाथाओं को देखकर कर्ताका निश्चय नहीं किया था बल्कि उसमें कर्ताका नेमिचन्द्र सिद्धान्ती, नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ऐसा स्पष्ट नाम दिया हुआ है । सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से भिन्न दूसरे नहीं कहलाते । इसके सिवाय, हाल में शाहगढ़ जि० सागर के सिंघईजी के मन्दिर से 'कर्मप्रकृति' की सं० १५२७ की लिखी हुई जो एकादशपत्रात्मक सटिप्पण् प्रति मिली है, उसकी अन्तकी पुष्पिका कर्ताका नाम स्पष्टरूप से नेमिचन्द्रमिद्धान्तचक्रवर्ती दिया हुआ है और साथ ही उसे कर्मniser प्रथम अंश भी प्रकट किया है जिससे दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं—एक तो यह कि कर्मप्रकृति नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति की ही कृति है और दूसरी यह कि वह नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कोई भिन्नकृति नहीं है बल्किवह उनकी प्रधानकृति कर्मकाण्डका ही प्रथम अंश है और इसलिये मैंने जिस कर्मप्रकृति के आधारपर मुद्रित कर्मकाण्ड में
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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