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[माध, वीर निर्वाय सं० २०
हैं वे इस सूत्रके अनन्तर "अतीन्द्रियाः केवलिनः" यह है और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है-"पदा शब्दो एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं । यह सब कथन निपातः कासवाची स वषयमाणवरणः तस्य प्रदेशवर्तमानके दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्र पाठोंके साथ प्रतिषेधार्थमिह कारग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है कि सम्बद्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि पहले तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के शब्दोंपर ही अपना आधार अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे अनेक प्राचार्य रखता है,और इसलिये यह कहना कि भाष्यकी 'पद्धा. परम्परात्रोंसे सम्बन्ध रखते थे । छोटी-बड़ी टीकाएँ समयप्रतिषेधार्थ च' इस पंक्तिको उक्त वार्तिक बनाया भी तत्त्वार्थसूत्रपर कितनी ही लिखी गई थीं। जिनमेंसे गया है कुछ संगत मालूम नहीं होता । ऊपरके सपूर्ण बहुतसी लुप्त हो चुकी हैं और वे अनेक सूत्रोंके विवेचनकी रोशनीमें वह और भी असंगत जान पड़ता है । पाठभेदोंको लिये हुए थीं।
अब रही नं० ४ में दिये हुए प्रोफेसर साहबके दो ऐमी हालतमें लेखके नं० ३ में प्रोफेसर साहबने मुद्दों ( 'क-ग' भागों) की बात । 'उक्तं हि महत्प्रवचने उक्त शंकाका निरसन होना बतलाते हुए, जो यह "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा" इति' यह मुद्रित राजवार्तिनतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने कोई दूमरा कका पाठ जरूर है परन्तु इसमे उल्लेखित 'अर्हत्प्रवचन' सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थभाष्य से तत्त्वार्थ भाष्यका ही अभिप्राय है ऐसा लेखक्रमहोमौजद था" बद्द समुचित प्रतीत नहीं होता । इसी तरह दयने जो घोषित किया है वह कहाँस और कैसे फलित भाष्यकी पक्तिको उठाकर वार्तिक बनाने श्रादिकी जो होता है, यह कुछ समझमें नहीं आता । इस वाक्यमें बात कही गई है वह भी कुछ ठीक मालूम नहीं होती। गुणों के लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका उल्लेख है वह अकलंकने अपने राजवातिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थमिद्धि तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके पाँचवें अध्यायका ४०वॉ सत्र है, का प्रायः अनुमरण किया है। सर्वार्थसिद्धि में पाँचवें और इमलिये प्रकट रूपमें 'अर्हत्प्रवचन' का अभिप्राय अध्यायके प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिग्वा है- यहाँ उमास्वातिक मूल तत्त्वार्थाधिगमसत्रका ही जान "काली वयते, तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कागग्रहणम्।" पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं। सिद्धसेनगणीका इमी बातको व्यक्त करते हुए तथा काल के लिये उसके जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया है उसमें भी पर्याय नाम 'श्रद्धा' शब्दका प्रयोग करते हुए, रानवा- 'महत्प्रवचन' यह विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके र्तिकमें एक वार्तिक "श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च" दिया लिये प्रयुक्त हुश्रा है-मात्र उसके भाष्य के लिये नहीं।
• "अपरेऽतिविसंस्थलमिदमाखोक्य भाष्यं विष- इसके सिवाय, रानवार्तिक में उक्त वाक्यसे पहले यह पणाः सन्तः सूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते"। वाक्य दिया हुआ है-"महत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोइदमन्तराजमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरभ्य सूत्र- पदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी वार्तिकभी इस रूपमें दिया मधीयते-'प्रतीन्द्रियाः केवखिनः' येषां मनुष्यादीनां है-"गुणाभावा दयुक्तिरिति चेन्नाईस्प्रवचनहृदयादिष प्राणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे व एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् गुणोपदेशात ।" इससे उल्लग्वित ग्रन्थका नाम 'महनवकेवलिनोऽपि पंचेम्बियप्रसक्तः अतस्तदपवादार्थमतीत्ये- चनदय' जान पड़ता है, जो उमास्वति-कत कसे भिन्न प्रियाणि केवलिनो वर्तन्त हत्यारपेयम् ।" कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा । बहुत संभव है कि