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________________ ३, किरव] गोम्मटमार एक संग्रह ग्रंथ लिये पाँच नरकों तक उत्पत्तिका विधान है, तब राज- "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभाषमा मासुपस्व" ऐसा वार्तिकका उरगोंके लिये चार नरकों तक और सिंहोंके सूत्रपाठ होगा-'स्वभावमा' की जगह 'स्वभावमाईलिये पाँच नरकों तककी उत्पत्तिका विधान है। यह वार्ज नहीं । इसी तरह "बन्धे समाधिको पारिवामतभेद एक दूसरेके अनुकरणको सूचित नहीं करता, न मिकौ" सूत्रपाठ भी होगा, जिसके "समाधिको" पदकी पाठ-भेदकी किसी अशुद्धि पर अवलम्बित है; बल्कि आलोचना करते हुए और उमे 'आर्षविरोधि वचन' अपने अपने सम्प्रदायके सिद्धान्त-भेदको लिये हुए हैं। होनेसे विद्वानोंके द्वारा अग्राह्य बतलाते हुए 'अपरेषा राजवार्तिकका नरकोंमें जीवोंके उत्पादादि सम्बन्धी कयन पाठः' लिखा है--यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा 'तिलोयपण्णत्ती' आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों के अाधार सूत्रपाट मानते हैं। यहाँ 'अपरेषां' पदका वैमा ही प्रयोग पर अवलम्बित है। है जैमा कि पूज्यपाद श्राचार्यने ऊपर उद्धृत किये हुए यहाँ पर एक बात और भी जान लेनेकी है और पाठभेदके मायमें किया है। परन्तु इस 'समाधिको' वह यह है कि श्री पूज्यपाद श्राचार्य सर्वार्थसिद्धि में, पाठभेदका सर्वार्थीमद्धि में कोई उल्लेग्व नहीं, और इससे प्रथम अध्यायके १६ वे सूत्रकी व्याख्यामें, 'क्षिप्रानिः- ऐसा ध्वनित होता है कि सर्वार्थासद्धिकार प्राचार्य सृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःमृत' पाठ भेदका उल्लेख करते पूज्यपादके सामने प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य अथवा तत्त्वार्थहुए लिखते हैं भाष्यका वर्तमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वोप"अपरेषां चिनिःसृत इति पाठः । त एवं वर्ण- ज्ञ भाष्य' होनेकी हालतम उपस्थित होना बहुत कुछ यन्ति-श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुर- स्वाभाविक था, और न वह सूत्रपाट ही उपस्थित था रस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते।" जो अकलक के मामने मौजद था और जिमके उक्त सूत्रजिस पाठभेदका यहाँ 'अपरेषां' पदके प्रयोगके पाठको वे 'पार्षविरोधी' तक लिग्यते हैं, अन्यथा यह माथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' कहे जानेवाले संभव मालम नहीं होता कि जो श्राचार्य एकमात्रा तक उक्त तत्त्वार्थभाध्यम नहीं है, और इममे यह स्पष्ट जाना के माधारण पाठभेदका तो उल्लेख कर वे ऐसे विवादा. जाता है कि पज्यपादके मामने दूसरोका कोई ऐमा सूत्र- पन्न पाटभेटको बिल्कुल ही छोड़ जाये । पाठ भी मौजूद था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाध्य मिद्धसन गगीकी टीका में अनेक ऐमे सूत्रपाठोंका के सूत्रपाठसे भिन्न था । ऐसा ही कोई दूमरा सूत्रपाट उल्लेग्व मिलता है जो न तो प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्यमें पाये अकलकदेवके मामने उपस्थिन जान पड़ता है, जिसमें जाते हैं और न वर्तमान दिगम्बरीय अथवा मर्वार्थसिद्धि ® देखो जैनसिद्धान्तमास्करके ५ भागकी मान्य सूत्रपाठ में ही उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिये तीसरी किरणमें प्रकाशित 'निलोयपरणती' का नरक "कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि" सूत्रको विषयक प्रकरण, (गाथा २८५, २८६ भावि) जिसमें लीजिये, मिद्धमन लिखते हैं कि हम सूत्र में प्रयुक्त हुए वह विषय बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय नं. के 'मनुष्यादीमाम्' पदको दूमरे ( अपरे ) लोग 'भना' भनेक भागों में उल्लेखित राजवातिकके वाक्यों में पाया बतलाते हैं और माथ ही यह भी लिग्बत है कि कुछ जाता है। अन्य जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको नो स्वीकार करते
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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